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________________ 'उनका व्यवसाय क्या है?' 'सुना है कि एक छोटी-सी दुकान है.... परिवार का गुजारा हो सके उतनी ही आय है।' 'अरे रे! तू संकोच मत करना। स्पष्ट इन्कार कर देना। ऐसे सामान्य परिवार में तेरी भावनाओं का पोषण कैसे होगा? तेरी आशाएं, ऊर्मियां और उमंगें सारी चुक जाएंगी।' तरंगलोला ने कहा। विलंब होने के कारण सारसिका ने सखी से विदाई ली और घर की ओर चल दी। तरंगलोला भी मां के पास चली गई। रात होते ही तरंगलोला ने सोचा-पद्मदेव नाम तो बहुत प्यारा है...... परन्तु एक बार मैं उन्हें देख लूं तो फिर उनके स्मरण से दिन बिताना सहज हो जाएगा. सारसिका के कहने के अनुसार वे धनाढ्य हैं, अति सुंदर और आरोग्यवान् हैं। मैं उनको कब देख पाऊंगी? __ तीसरे दिन सारसिका आ गई...... सखी को देखते ही तरंगलोला प्रसन्न हो गई और सखी को लेकर अपने निजी खंड में चली गई। खंड में जाने के बाद सारसिका ने पूछा-'तरंग! क्या धनदेव सेठ आए थे?' 'कोई नहीं आया..... मेरा मन तो विचारों के भंवर में फंस गया है...... एक बार पूर्वभव के पति को देख लूं तो फिर उनकी स्मृति में दिन बिता सकती हं... अच्छा तू अपनी बात तो बता मेरा मन तेरे प्रश्न पर पागल हो गया है।' तरंगलोला ने कहा। 'मेरा प्रश्न तो समाहित हो गया।' हंसते हुए सारसिका ने कहा। 'विधुर के साथ विवाह निश्चित हो गया?' 'नहीं, मेरी भाभी को और माताजी को वर पसन्द नहीं आया......' 'तूने भी देखा था...।' 'हां..... चालीस वर्ष का वीर पुरुष है...... उसके तीन बालक हैं... मां को पसन्द आ जाता तो मुझे बिना संतान पैदा किए ही मातृत्व का लाभ मिल जाता...' परन्तु भाग्य के बिना ऐसा सुख मिलता नही।' व्यंग्यभरे स्वरों में सारसिका ने कहा। 'तेरी बात समझ में नहीं आती। क्या वह तुझे पसन्द आ गया था?' 'यह तो मैं कैसे बता सकती हैं, क्योंकि मां ने और भाभी ने यह प्रश्न मेरे तक आने ही नहीं दिया।' कहकर सारसिका हंस पड़ी। 'ठीक है.....तू निश्चिन्त हो गई......' तरंगलोला बोली। इधर पद्मदेव ने कल ही अपने मित्रों के साथ मंत्रणा की थी। एक मित्र ने कहा-'नगरसेठ की कन्या के साथ सगाई करने की बात को लेकर तेरे पिताश्री ९२ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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