SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'सखी! ऐसी बातों में तुझे धैर्य रखना चाहिए । पद्मदेव और उसके मित्र परस्पर विचार-विमर्श करेंगे। फिर धनदेव सेठ के कानों तक बात पहुंचायेंगे और तत्पश्चात् तेरे पिता से मिलने आएंगे ऐसा मुझे प्रतीत होता है क्योंकि पद्मदेव से मिलने के लिए तू जितनी आतुर हो रही है, उतनी ही आतुरता मुझे पद्मदेव के नयनों में दीख पड़ी अब तू प्रतीक्षा कर अधीर मत हो । ' 'सखी! अधैर्य का प्रश्न नहीं है। प्रश्न है वर्षों की विरह व्यथा का 'मैं समझती हूं' परन्तु तरंग ! रसशास्त्री कहते हैं कि विरह एक तपस्या है ..... विरहाग्नि में जलते हुए हृदय का प्रेम कंचन जैसा शुद्ध होता है' धैर्य के बिना व्यथा जीर्ण नहीं होती तू यह भी तो सोच, यदि जातिस्मरणज्ञान नहीं हुआ होता तो....... ?' तरंगलोला बोली- 'सारसिका ! मैं सब समझती हूं" मेरी कुल मर्यादा का भी मुझे ख्याल है हृदय में छुपी हुई विरह व्यथा को साकार बनाने के लिए मैंने चित्रांकन तैयार किए थे परन्तु प्रियतम का अता-पता ज्ञात हो जाने पर क्या कोई नारी धैर्य रख सकती है? फिर भी मैं अधीर नहीं बनूंगी" सारसिका ने कहा- 'तू समझदार और ज्ञानी है। कुछ दिनों तक धैर्य अभी मैं घर जा रही हूं तीसरे दिन फिर मिलूंगी ''' 'सखी! तेरे बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकती । ' रखना 'मेरा जाना आवश्यक है। आज नगरी का एक परिवार मुझे देखने आ रहा किन्तु शीघ्र ही लौटने क्योंकि रात्रि की घटना तुझे न मां तो मुझे अभी यहां आने ही नहीं दे रही थी " का वादा कर ज्यों-त्यों यहां आ पाई हूं" बताऊं तब तक मेरा मन भी कैसे स्थिर रह सकता है ? ' 'तुझे देखने के लिए? क्यों ?' 'कन्या को देखने क्यों आते हैं?' 'कौन है वह भाग्यशाली ?' 'यह तो मैं नहीं जानती है मैंने अपनी भाभी के मुंह से तीन भाई, दो बहिनें और माता-पिता ने इसी को पसन्द किया है मेरे लिए। सहज स्वरों में सारसिका ने बताया । ' और संभव 'नहीं, सखी! विधुर के साथ तेरा विवाह क्यों ? तू मात्र सौन्दर्य की ही स्वामिनी नहीं है, तेरे में तेजस्विता भी है, तू पूर्ण संस्कारी भी है हैविधुर की अवस्था भी तेरे से अधिक होगी दोनों में सामंजस्य कैसे 'यह तो मैं नहीं जानती ! आज मैं देख लूंगी।' ?' परन्तु इसी नगरी का एक मध्यम परिवार सुना है कि परिवार बहुत बड़ा नहीं है इनमें बड़ा भाई विधुर है मेरे पिता 'यदि अधेड़ वय का होगा तो ?' 'मेरी इच्छा के विरुद्ध मां अपनी सहमति नहीं देगी" पूर्वभव का अनुराग / ९१
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy