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________________ गई। उसके मन में पूरा विश्वास हो गया कि यह युवक ही तरंगलोला का पूर्व जीवन का जीवनसाथी है। कुछ ही क्षणों के बाद एक मित्र चित्रकक्ष में आया और सारसिका की ओर देखकर विनम्र स्वरों में बोला- 'बहिन ! ये चित्र कलात्मक हैं, सुंदर हैं। क्या आप बताएंगी कि यह चित्रांकन किसकी निपुण अंगुलियों से हुआ है । ' सारसिका बोली- 'नगरसेठ की कन्या और मेरी सखी तरंगलोला ने अपने हाथों से ये चित्रांकन किए हैं और उसकी योजना के अनुसार हमने ये चित्रपट्ट यहां प्रदर्शित किए हैं।' 'क्या देवी तरंगलोला की ये कलाकृतियां हैं?' 'हां भाई ये सारे चित्र काल्पनिक नहीं हैं। यथार्थ हैं। तरंगलोला के मन में एक सत्य उभरा और उसने ये सारे चित्र अपने पूर्वभव के पति को खोजने के लिए तैयार किए हैं। ' 'सत्य कह रही हो ?' ‘असत्य क्यों बोलूं?’ 'आभार!' कहकर मित्र पुनः पद्मदेव के पास आ गया और प्रसन्नभाव से बोला-'पद्म ! अब चिंता मत करो पूर्वजन्म की तेरी प्रिया मिल गई है वह अन्य कोई नहीं, किन्तु अपने नगरसेठ ऋषभसेन की प्रिय पुत्री तरंगलोला है । ये चित्र काल्पनिक नहीं हैं। हृदय में जागृत यथार्थ के आधार पर चित्रित हुए हैं, और वह भी अपने पूर्वभव के पति को खोजने के लिए यह उपक्रम किया है। ' यह सुनकर पद्मदेव की प्रसन्नता खिल उठी वह विकसित कमल जैसा वह बोला- 'मित्रो! अब मेरे जीवन में आनन्द उभरेगा बन गया गत जन्म की मेरी प्रिया चक्रवाकी इसी नगर में नगरसेठ की कन्या के रूप में अवतरित हुई है यह कहते-कहते पद्मदेव विचारमग्न हो गया और फिर विषादभरे स्वरों में बोला- 'परन्तु नगरसेठ राजा के मित्र अति धनाढ्य होने के कारण अहंकार के मद से ग्रस्त हैं मैं जानता हूं कि उनकी कन्या की मांग लेकर अनेक श्रीमन्त आए थे, परन्तु नगरसेठ ने उनकी मांग को अस्वीकार कर दिया था। तो फिर मेरी तो गिनती ही क्या है ? मित्र ! एक बार प्रियतमा की खोज हो जाने पर जब वह प्राप्त नहीं हो सकेगी तो मेरा जीवन अत्यन्त वेदनामय बन जाएगा । ' दूसरा मित्र बोला- 'परन्तु हमें ऐसा अनुमान क्यों करना चाहिए ? उसकी शोध हो चुकी है, यह कोई सामान्य बात नहीं है। तेरी प्रियतमा ने भी तेरी खोज करने के लिए ही ये चित्रांकन किए हैं। जो है, उसको प्राप्त किया जा सकता है, उसकी प्राप्ति का मार्ग ढूंढा जा सकता है। अभी तक तरंगलोला की सगाई नहीं हुई है, इसलिए सगाई की बात की जा सकती है तथा अन्यान्य उपायों से भी उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जा सकेगा। तू निश्चिन्त रह । ' पूर्वभव का अनुराग / ८७
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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