SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहंचतें और वर्षों की आराधना के पश्चात् इष्टसिद्धि कर अपनी जन्मभूमि की ओर प्रस्थित होते। जैसे तक्षशिला महाविद्यालय लाखों विद्यार्थियों की व्यवस्था करता था, वैसे ही वाराणसी के गुरुकुल लाखों विद्यार्थियों को विविध विद्याओं का अध्ययन कराने में सक्षम थे। वाराणसी केवल विद्याकेन्द्र ही नहीं था, वह विविध कारीगरी और व्यवसाय का भी महाकेन्द्र था। जैसे नेपाल में रत्नकंबल का निर्माण होता था, जो एक अंगूठी में से आरपार निकल सकता था, वैसे ही वाराणसी कौशेय वस्त्र-निर्माण में बेजोड़ नगर था। दूर-दूर के व्यापारी यहां कौशेय वस्त्र खरीदने आते थे। एक दृष्टि से यह नगरी प्रत्येक दृष्टि से सफल थी। गंगातट के एक लघु उद्यान में एक छोटा-सा भवन था। वहां जैनदर्शन के महापंडित आर्यवल्लभ शास्त्री रहते थे। वे समग्र पूर्वभारत के पंडितों में अग्रणी थे। जब शास्त्रार्थ में मतभेद होता तब पंडितजी का निर्णय अंतिम माना जाता था। महापंडित सुखी जीवन जी रहे थे। उनकी उम्र अभी पचास पार नहीं कर पाई थी। आरोग्य उत्तम था। स्वभाव स्वच्छ और सरल था। धन-संपत्ति यथेष्ट थी। दो सौ गायों का एक गोकुल था। एक बाड़ी थी...' एक अतिथिगृह था। उनकी पत्नी सुशीला यथार्थ नाम तथा गुण वाली थी। अवस्था में वह पंडितजी से बारह वर्ष छोटी थी।....जब महापंडितजी ने विवाह रचा तब सुशीला केवल तेरह वर्ष की थी..... माता-पिता दीक्षित हो गए थे.... वह एक विधवा भगिनी के साथ रह रही थी..... प्रत्येक बात से सुखी पंडितजी संतानसुख से वंचित थे। ___ दोनों जैनधर्म के परम उपासक होने के कारण संतान के अभाव को कर्मफल मानते थे।... सुशीला पंडितजी से दूसरा विवाह करने के लिए आग्रह करती रहती थी। परन्तु पंडितजी सदा इन्कार करते रहते। वे कहते–'प्रिय! भाग्य को बदला नहीं जा सकता। यदि अपने भवन में संतान के मधुरहास्य का गुंजारव होना होगा तो वह तेरे से ही होगा..... अन्य स्त्री का पाणिग्रहण कर मैं इस अधेड़ वय में परिग्रह क्यों बढ़ाऊं? संतान से स्वर्ग का सुख मिलता हो, यह मात्र मन की तरंग है। बहुधा संतान के कारण ही अत्यधिक दुःख भोगना पड़ता है।' पति की इस बात पर सुशीला क्या कहे? दिन बीते। और सुशीला देवी को चालीसवें वर्ष में संतान की आशा बंधी। सगर्भा होने के लक्षण प्रतीत होने लगे। भवन में आनन्द का वातावरण सृष्ट हो गया। महापंडित ने तिरपनवें वर्ष में प्रवेश किया और सुशीला देवी ने एक पुत्र का ३४ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy