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________________ इसलिए यह विकराल बना हुआ था। स्वयं बंधन-मुक्त हो गया है, यह जानकर वह महिष चारों पैरों को पृथ्वी पर पछाड़ता हुआ मैदान की ओर बढ़ा...... उससे केवल पचास कदम की दूरी पर नौजवान सुदंत खड़ा था। इतने विशाल मैदान में एकमात्र मानव को देख वह वनमहिष उसकी ओर दौड़ा। वृक्षों पर चढ़े पारधियों के श्वास रुक-से गए और वे स्थिरदृष्टि से नीचे देखने लगे। क्या होगा? महाकाल जैसा यह वनमहिष इस नौजवान को रौंद देगा तो......? वासरी के हृदय में सुदंत घर कर गया था. वह उसे आतुर नेत्रों से देख रही थी और मन ही मन देवी का स्मरण कर रही थी। २. विजेता चन्द्रमा पश्चिम कोण की ओर बढ़ रहा था...... फिर भी इस मैदान में पूर्ण प्रकाश था... और वृक्षों की छाया कुछ विस्तृत हो रही थी। सामने से आते हुए वनमहिष की ओर दृष्टि टिकाए सुदंत पूर्ण जागरूक और सावधान था। वह सोच रहा था कि यदि वासरी जैसी रूपवती कन्या का सहवास इष्ट है तो इस जीवित मृत्यु को मार कर रास्ते से हटाना ही होगा। __ पारधी सुदंत छकाकर महिष को मैदान की ओर ले आया। पारधी परिवार धड़कते हृदय से कभी सुदंत की ओर स्थिर दृष्टि से देख रहे थे और कभी वनमहिष की भयंकरता का अनुभव कर रहे थे। सुदंत ने वनमहिष की शक्ति को क्षीण करने के लिए चक्कर लगाने प्रारंभ किए। वह गोलाकार चक्कर लगा रहा था। वनमहिष छोटे हाथी की भांति भारी-भरकम था। वह सहजतया गोलाकार घूम नहीं पा रहा था। ज्यों ही वनमहिष सुदंत की ओर आता, सुदंत दूसरी दिशा में मुड़ जाता और तब पारधियों के हाहाकार फूट पड़ते। परिणाम क्या होगा?'......' यह कोई नहीं जान पा रहा था। और यह प्रश्न सब के मन में चुभन पैदा कर रहा था। वनमहिष की शक्ति को सभी पारधी जानते थे। उन्हें ज्ञात था कि वनमहिष के एक ही मस्तक प्रहार से बलिष्ठ मनुष्य धूल चाटने लग जाता है और महिष तब उसके शरीर का कचूमर निकाल देता है। यह स्थिति सभी पारधियों को ज्ञात थी और इसीलिए सभी संशयात्मक दृष्टि से देख रहे थे। एक वृक्ष पर वासरी अपनी सखियों के साथ बैठी थी। सुदंत को वनमहिष के साथ देखकर उसका हृदय धड़कने लगा। उसका मन बार-बार पुकार रहा था-भगवन् ! सुदंत को विजयी बनाना।। सुदंत मैदान के मध्य वनमहिष को गोलाकार चक्कर कटवा रहा था। इस पूर्वभव का अनुराग / १३
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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