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________________ निशानेबाजी अजोड़ थी। उसने सावधान होकर बाण छोड़ा। रस्सी कट गई। मिट्टी का घट धड़ाम से धरती पर गिर कर फूट गया और तब पारधी नर-नारियों ने हर्षनाद से समूचे वनप्रदेश के शांत वातावरण को ध्वनित कर डाला। सारा वातावरण चपल हो गया। दूसरे युवक पारधी आगे आए और सुदंत को हाथों में ऊपर उठा लिया। वासरी तिरछी दृष्टि से सुदंत के स्वस्थ और श्यामसुंदर सुडौल शरीर को अनिमेष दृष्टि से देखने लगी। मुखिया खड़ा हुआ और गर्जना करते हुए बोला- 'सभी कान खोलकर सुन लें। वनमहिष जो बंधा हुआ है, अब हम उसको बंधनमुक्त करेंगे। अतः सभी स्त्री-पुरुष आस-पास के वृक्षों पर चढ़ जाएं' छोटे बच्चों को भी वृक्षों पर अपने पास बिठा लें । ' मुखिया की यह बात सुनते ही सभी पारधी स्त्री - पुरुष मैदान के आस-पास के वृक्षों पर चढ़ने लगे। जो वृद्ध पुरुष तथा स्त्रियां और बालक वृक्षों पर चढ़ने में असमर्थ थे, उनके लिए मजबूत लकड़ियों का एक घेरा बना हुआ था, उसमें सभी अशक्त पारधी चले गए। पूरे मैदान में सुदंत मानव सिंह की भांति अप्रकंप खड़ा था। उसने अपने धनुष-बाण अपने एक साथी को दे दिए थे। उसने पहनी हुई धोती की मजबूत लांग लगाई। गले में पहनी हुए सारी मालाएं निकाल कर एक ओर रख दीं। उसके कानों में श्वेत शंख के कुंडल चांदनी के प्रकाश में झिलमिला रहे थे। उसके वक्षस्थल का अमुक भाग व्याघ्रचर्म से ढंका हुआ था। एक वृक्ष पर सुरक्षित बैठे हुए मुखिया ने कहा - 'सुदंत! मैदान को एक बार देख लो कि कोई उसमें रह तो नहीं गया है ?' सुदंत ने चारों ओर देखकर कहा - 'नहीं, मैदान में कोई नहीं है । ' और इतने में ही मुखिया ने सींग बजाया और तब दो वृक्षों पर चढ़े दो पारधी जवानों ने दो ओर की रज्जुओं को खींचा और मजबूत लकड़ी के बने घेरे में से वह वनमहिष बंधन मुक्त हो गया। जीवित यमराज सदृश वह वनमहिष कारागार की असह्य पीड़ा से क्रोधाविष्ट हो गया था। अंगारे जैसे उसके नेत्र प्रलयाग्नि की भांति लग रहे थे। उस महिष ने एक घुरकाट की। सारा वनप्रदेश प्रकंपित हो उठा। वृक्ष पर चढ़े पारधी स्त्री-पुरुषों के हृदय धग्-धंग् करने लगे। उन्होंने वृक्ष की शाखाओं को और अधिक बलपूर्वक पकड़ लिया। सुंदत स्वस्थचित्त और निर्भय होकर उस जीवित मृत्युसम वनमहिष की ओर अग्रसर हुआ। लगभग दस प्रहर से इस वनमहिष को कुछ भी भोजन नहीं दिया था, १२ / पूर्वभव का अनुराग
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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