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________________ 'बताएं भगवन्! हम यह जानने के लिए अत्यंत उत्सुक हैं,' पद्मदेव ने उल्लासपूर्वक कहा। मुनि दो क्षण के लिए मौन हो गए। २४. सर्वत्याग के मार्ग पर तरंग और पद्मदेव आश्चर्य से अभिभूत थे। वे जान नहीं पा रहे थे कि मुनिश्री के मुनिजीवन के वे निमित्त हैं। वे बार-बार मुनिश्री के तेजस्वी आनन को देख रहे थे। मुनिश्री ने मौन खोला, बोले-'मुनियों को अपने पूर्व जीवन की स्मृति नहीं करनी चाहिए, परन्तु उपसंहार की दृष्टि से मैं अपने विगत जीवन का वृत्तान्त कह रहा हूं.' आपका आश्चर्य भी उपशांत होगा और मुझे यह भी सही प्रतीत हो जाएगा कि मैंने आपको सही रूप में पहचाना है।' वर्षों पहले की बात है। विगत जन्म में चंपानगरी के पास एक वनप्रदेश में पारधियों के अनेक परिवार निवास करते थे। सभी परिवार शांति से रह रहे थे। मेरे पिता धनुर्विद्या में पारंगत थे। उनका निशाना कभी व्यर्थ नहीं होता था। हमारा व्यवसाय शिकार, खेती और मस्तीमय जीवन बिताना मात्र था। हम स्वयं अपने राजा थे। हमारे ऊपर किसी का अनुशासन नहीं था। मैं जब युवा हुआ तब मातापिता-दोनों मृत्यु के ग्रास बन गए। मेरे एक बहिन भी थी। बहिन का विवाह हो गया। मैं अकेला अपनी झोंपड़ी में अपने ढंग से मस्तीभरा जीवन जी रहा था। मैं भी पिता की तरह निशानेबाज हुआ। पुण्य-पाप जैसी चर्चाएं हम नहीं करते थे। हम केवल ग्रामदेवता के प्रति श्रद्धा रखते थे। एक बार हमारे मुखिया की कन्या का विवाह महोत्सव हुआ। उसमें बल परीक्षण की मुख्य शर्त थी। एक पूनम की रात में बल परीक्षण की प्रतिस्पर्धा हुई...... मैं विजयी हुआ.... मुखिया की कन्या वासरी के साथ मेरा विवाह हो गया। हमारा संसार चलने लगा। लग्न की पहली रजनी में मैंने पत्नी वासरी को हाथीदांत देने का वचन दिया। एक दिन उसको प्राप्त करने निकला। गंगा के तट पर सरोवर में हाथी जलक्रीड़ा करने आया। मैंने उल्लासभरे भावों से हाथी को निशाना बना बाण छोड़ा। निशाना चूक गया। वह बाण एक चक्रवाक को लगा और वह लहूलुहान होकर धरती पर आ गिरा। चक्रवाक को इस स्थिति में देखकर चक्रवाकी ने वेदनाभरा क्रन्दन किया। वह मैं देख नहीं सका। मैंने जीवन में अनेक शिकार किए थे। शिकार के नियमों का पालन भी मैं करता था। प्रेम दीवाने जोड़े में से किसी को मारना नियम विरुद्ध था। मेरे से यह अपराध हो गया। मेरा हृदय रोने लगा। चक्रवाकी की करुण दशा और वेदनाभरे रुदन को सुनकर मेरा हृदय चूर-चूर हो गया। मैंने चिता जलाकर चक्रवाक की दाहक्रिया की। चक्रवाकी प्रियतम को अकेले जलते देख, वह भी पूर्वभव का अनुराग / १४१
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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