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________________ तरंगलोला चौंकी अरे! जो मुझे पहले करना था, वह स्वामी ने कर डाला.. पद्मदेव पत्नी के निकट बैठ गया। तरंग ज्यों ही पति के चरणों में नत होने लगी, तत्काल पद्मदेव ने उसे दोनों हाथों से उठा लिया और उसको बाहुपाश में जकड़ लिया। प्रेम तो पूर्वभव से संचित था ही...... युवा हृदय थे....... यौवन की उष्मा छलक रही थी.... मधुर मीठी रात थी.... दोनों के मन में विविध वार्ता करने की तमन्ना थी। और पति-पत्नी की बातें तो अनन्त होती हैं, ऐसा रसकवि कहते हैं। ये बातें कभी पूरी नहीं होती...... प्रतिदिन नए-नए रूपों में उभरती रहती हैं। प्रिया और प्रियतम। मानो संसार में दो के सिवाय कोई है ही नहीं, इस तमन्ना के साथ दोनों एक-दूसरे में समा गए। प्रणय माधुरी..... दोनों में से किसी को ख्याल नहीं रहा कि प्रात:काल हो गया है। इस प्रकार दोनों का समय बीतने लगा। और....... सारसिका का विवाह इसी नगरी के एक कुलीन नौजवान के साथ हो गया...... वह बार-बार अपनी सखी से मिलने आती। सारसिका के आग्रह के कारण एक दिन पद्मदेव और तरंगलोला-दोनों उसके घर भोजन के लिए गए। वही दिन प्रेमवश नगर-त्याग का साहसिक दिन था। उसकी स्मृति से सारसिका, उसका पति विमलकुमार, पद्मदेव और तरंगलोला-सभी बहुत हर्षित हुए। इस घटना को बीते एक वर्ष हो गया था। लग रहा था कि यह तो कल की ही घटना है। सुख की शय्या में सोए हुए मनुष्यों को समय का ख्याल नहीं रहता। आनन्द, विनोद, मस्ती और योग से रहने वाले तरंगलोला और पद्मदेव इस प्रकार जीवन बिता रहे थे, मानो उनका पाणिग्रहण कल ही हुआ हो। रुद्रयश को खोजने में सफलता नहीं मिली। अनेक प्रयत्न किए, पर सब व्यर्थ। बारह वर्ष बीत गए। परन्तु धनदेव और उनकी पत्नी कल्याणी पौत्र का मुंह देखने की तमन्ना लिये समय बिता रही थी। एक दिन कल्याणी ने अपने पुत्र पद्मदेव से कहा-'बेटा! तरंग का आरोग्य तो उत्तम है, फिर भी नगरी के राजवैद्य को बुलाकर जांच करा लेनी चाहिए।' _ 'आरोग्य उत्तम है तो फिर मां! जांच क्यों?' पूर्वभव का अनुराग / १३९
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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