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________________ उत्तर क्या दें? फिर भी पद्मदेव बोला - 'बापू! कर्म का भोग सबको भोगना पड़ता है जो कुछ हमारे पास था, उसे गंवाकर हम भटकते-भटकते यहां आए हैं।' 'उस धर्मशाला में तुम आराम से विश्राम करना ।' दोनों उस धर्मशाला के पास पहुंचे। उन्होंने देखा, जमीन स्वच्छ थी। तरंगलोला बोली- 'स्वामी! स्थल सुंदर और स्वच्छ है। आप कहीं से भोजन ले आएं तो कुछ शान्ति मिले।' पद्मदेव ने मुस्कराते हुए कहा - 'प्रिय ! भूख तो मुझे भी लगी है जब मैं तुम्हारी काया की ओर देखता हूं तो भारी वेदना से भर जाता हूं तुम कोमल कली-सी कोमल, कहां वनप्रदेश का प्रवास ! प्रिये ! तुम्हारे लिए खाद्य-सामग्री कहां से लाऊं ? हमारे पास धन नहीं है। एक कौड़ी भी नहीं है। वस्त्र भी पूरे नहीं है। जो कुछ था वह लुट गया है और भोजन के लिए हाथ पसारना मेरे लिए मृत्यु को वरण करने जैसा है। जिनके मन में कुलाभिमान है ? वे कभी हाथ नहीं पसारते। वे पुरुषार्थ में विश्वास करते हैं। परन्तु प्रिये ! मैं तुम्हारी अकुलाहट देख नहीं सकता। एक नगरसेठ की कन्या भोजन के लिए तरसे ! हाय रे विधि! भाग्य की कैसी विडम्बना ! प्रिये! मेरे मन में कितना भी कुलाभिमान क्यों न हो, मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार हूं। मुझे किसी के घर जाकर भोजन मांगना स्वीकार नहीं है। तुम शांत रहो, अभी मैं इसका प्रबंध करता हूं।' तरंगलोला स्नेहातुर नयनों से स्वामी को निहारती रही । पद्मदेव पांथशाला से बाहर निकला। उसने देखा कि आठ-दस अश्वारोही इधर ही चले आ रहे हैं। वह वहीं खड़ा रह गया। ये सभी अश्वारोही रक्षक थे। उनमें एक व्यक्ति नागरिक जैसा लग रहा था। उसके वस्त्र सफेद थे और वह सभी से भिन्न अश्व पर आरूढ़ था। पद्मदेव ने सोचा- 'ये कौन होंगे ?' इतने में ही अश्वारोहियों की टोली पांथशाला के अत्यंत निकट आ गई। नागरिक-सा लगने वाले अश्वारोही की दृष्टि पद्मदेव पर पड़ी पद्मदेव भी उसको देखकर चौंका अश्वारोही ने अपने अश्व को वहीं रोक लिया और फुर्ती से नीचे उतरा इतने में ही पद्मदेव भी अपार हर्ष से बोल उठा - ' 'कौन ? कुल्माश हस्ती ?' इतने में ही कुल्माश हस्ती आगे बढ़ा और पद्मदेव के चरणों में लुठ गया और संभलकर बोला-‘आप यहां ? मित्र ! भगवान् ने मेरे ऊपर परम कृपा की है।' दोनों एक-दूसरे के गले मिले और वहीं नीचे बैठ गए। वह बोला- 'नगरसेठ के वहां और आपके पिताश्री को प्रातः पता चला। दोनों परिवार आकुल-व्याकुल हो गए नगरसेठ आपके पिताश्री से मिलने आए सारसिका के द्वारा सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ। नगरसेठ ने अपनी कन्या के वाग्दान की घोषणा की। मुझे १३२ / पूर्वभव का अनुराग परन्तु कहां
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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