SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'ओह! अब क्या किया जाए?' सुनन्दा ने नि:श्वास छोड़ते हुए कहा। सारसिका बोली-'मां! धैर्य रखने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। आप अपने विश्वस्त व्यक्तियों को पद्मदेव की खोज के लिए भेजें...... और यह जाहिर करें कि तरंगलोला मेरे घर रहने आ गई है...... इसके सिवाय मुझे कोई मार्ग नहीं दीखता।' __ नगरसेठ ने कहा-'तेरी बात सही है...... परन्तु मुझे धनदेव सेठ के वहां जाना पड़ेगा और आज ही वाग्दान की घोषणा कर धनदेव को सारी बात बतानी पड़ेगी....... तभी कुल का गौरव अखंड रह सकेगा।' सेठानी ने तत्काल प्रश्न किया-वाग्दान?' _ 'हां, यही एक निरापद मार्ग है। यदि दोनों को इसका पता लगेगा तो दोनों जहां कहीं होंगे तत्काल यहां लौट आएंगे संभव है पद्मदेव के मित्र विशेष जानते हों और वाग्दान की बात को वे पद्मदेव तक पहुंचा दें'-कह नगरसेठ खड़े हुए। __यह वेदना की बदली कब बिखरेगी? तरंग कब लौटेगी? वह इसी नगरी में है अथवा अन्यत्र? ऐसे अनेक प्रश्न मां के हृदय को बींध रहे थे। २१. कुल्माष हस्ती तरंगलोला और पद्मदेव-दोनों गांव में प्रविष्ट हए। वे एक संकरी गली से आगे बढ़ रहे थे। पद्मदेव आगे चल रहा था। उसके पीछे-पीछे तरंगलोला चल रही थी। तरंगलोला के वस्त्र रात्रि-प्रवास के कारण कहीं-कहीं से फट गए थे। किन्तु बंधनमुक्ति के आनन्द से वे आकण्ठमग्न थे..... दोनों रूप-रंग में असाधारण थे। तरंगलोला देवकन्या के सदृश और पद्मदेव देवकुमार जैसा लग रहा था। गांव के स्त्री-पुरुष, बालक और वृद्ध घरों से निकल कर अपने-अपने द्वार पर खड़े इस अद्वितीय जोड़ी को निहार रहे थे। ये कौन होंगे? कहां से आए हैं? इतने रूपवान् होने पर भी नंगे पैर चल रहे हैं? आदि-आदि प्रश्न उनके मन में उभर रहे थे। दोनों शांतभाव से चलते चले जा रहे थे। निर्भयता में ही देह का दर्द कम पीड़ा देता है। तरंगलोला के पैरों में छोटे-छोटे घाव हो रहे थे। उसके पैर सूज गए थे। पद्मदेव की भी यही दशा थी...... दोनों थके हुए लग रहे थे। एक वयोवृद्ध किसान सामने मिला। पद्मदेव ने पूछा-'दादा! यहां कोई विश्राम योग्य स्थान है?' 'हां, भाई! आप दूसरे गांववासी से लगते हैं। कुछ दूरी पर एक चौराहा है। वहां राम मंदिर है। उसी के पास छोटी धर्मशाला है...... अच्छा, तो तुम कहां से आ रहे हो?' वृद्ध ने प्रश्न किया? पूर्वभव का अनुराग / १३१
SR No.032422
Book TitlePurvbhav Ka Anurag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy