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________________ प्रथम अध्याय क्रिया की दार्शनिक पृष्ठभूमि अन्वेषण का तात्पर्य है नये तथ्यों की शोध । मनुष्य सदा से ही अपने बारे में और जगत के सम्बन्ध में जानने का यत्न करता रहा है। वह सोचता रहा है कि संसार नित्य है या अनित्य ? चित्त और अचित्त सत्ता का स्वरूप क्या ? उन सत्ताओं का पारस्परिक संबंध कैसे हुआ ? आत्मा क्या है ? उसका पुनर्जन्म होता है या नहीं ? इस प्रकार की जिज्ञासाओं का फलित है- दार्शनिक चिंतन का विकास। दर्शन का अर्थ है- " दृश्यते निर्णीयते वस्तु तत्वमनेनेति दर्शनम् " जिसके द्वारा वस्तुसत्य का निर्णय किया जाता है वह दर्शन है। ई.पू. छठी शताब्दि में मानव की जिज्ञासा काफी प्रौढ़ हो चुकी थी । विश्व की मूल सत्ता, सृष्टि के कर्तृत्व की समस्या, आत्मा की अमरता, शुभाशुभ कर्मों का विपाक आदि प्रश्नों पर अनेक दार्शनिकों ने गहन चिन्तन किया, मनन तथा निदिध्यासन के आधार पर अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये। मन्तव्यों में विरोध होने से दार्शनिक विवादों का भी जन्म तथा एक विषय में अनेक विचारधाराओं का विकास भी हुआ। फलतः आत्मतत्त्व और विश्व के संदर्भ में चार अवधारणाएं प्रमुख रूप से प्रस्तुत हुई 1. आत्मा एवं लोक नित्य है। आत्मा एवं लोक अनित्य है। 3. आत्मा और विश्व न नित्य है, न अनित्य है। 4. वे अंशत: नित्य है और अंशत: अनित्य है। 2. भगवान महावीर के युग में 363 मत प्रचलित थे। सूत्रकृतांग तथा उसकी निर्युक्ति में उनका उल्लेख किया गया है किन्तु मतवादों तथा उनके आचार्यों का नामोल्लेख वहां नहीं है। केवल उनके सिद्धांतों का प्रतिपादन और अस्वीकार है। क्रिया की दार्शनिक पृष्ठभूमि
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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