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________________ और आरंभ इन तीन रूपों में प्रस्तुति करने का श्रेय जैनदर्शन को ही है- ऐसा कहा जा सकता है। सरंभ क्रिया का मानसिक स्तर है। इस स्थिति में मन में क्रिया का विचार या संकल्प उत्पन्न होता है। समारंभ क्रिया का दूसरा स्तर है। इसमें संकल्प की दिशा में चरण न्यास किया जाता है किन्तु क्रिया की पूर्णता नहीं होती। आरंभ क्रिया के निष्पन्न होने की अवस्था है। जैनदर्शन अहिंसा प्रधान और निवृत्ति प्रधान दर्शन है। इसमें हिंसा के सूक्ष्म कारण पर ध्यान दिया गया है। हिंसा के सूक्ष्म विश्लेषण पर ही क्रिया का सिद्धांत विकसित हुआ। कर्म-बंध की निमित्तभूत चेष्टा क्रिया है। क्रिया के प्रथम पंचक में इसका स्पष्टीकरण हो जाता है। क्रिया का सम्बंध वर्तमान जीवन के साथ अतीतकालीन जीवन से भी है। कर्मबंध का सम्बन्ध मूलतः आन्तरिक अविरति से है। जैनदर्शन में हिंसाजनित क्रियाओं की गहराई में भी जाने का प्रयत्न किया गया। परिणाम स्वरूप यह तथ्य उजागर हुआ है कि मनुष्य के द्वारा मन, वचन और काय की क्रियाएं जिन प्रयोजनों से की जाती है मुख्यत: वे तीन हैं - 1. वर्तमान जीवन की सुरक्षा । 2. प्रशंसा - आदर- पूजा पाने की आकांक्षा । 3. जन्म मरण से मुक्त होने की इच्छा। व्यक्ति इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिये हिंसा करता है, करवाता है और करने वाले का अनुमोदन करता है। किसी भी प्राणी को मारना, गुलाम बनाना, उस पर शासन करना, पीड़ा देना, द्वेष रखना आदि सभी क्रियाएं हिंसात्मक हैं। क्रिया को व्यापक अर्थ में देखे तो जीव और पुद्गल के सहयोग से जीव जितने प्रकार की प्रवृत्ति करता है, उतने ही प्रकार की क्रियाएं होती हैं। जीव की क्रिया मात्र चाहे वह पुण्य रूप हो या पापरूप से कर्म - बंधन अवश्य होता है। 9 सकषाय अवस्था में होने वाला बंध साम्परायिक और निष्कषाय अवस्था में होने वाला बंध ईर्यापथिक है। बंधन का यह विभाजन भी विशिष्ट हैं। दो प्रकार के बधन की भूत क्रियाएं भी दो प्रकार की है - सांपरायिकी और ईर्यापथिकी। सांपरायिकी और र्यापथिकी क्रियाएं परस्पर विरोधी हैं। दोनों क्रियाएं एक साथ एक जीव में नहीं होती। उपसंहार 401
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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