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________________ कर्म-बंध से बचने के लिये कर्म-बंध की हेतुभूत क्रियाओं से बचना आवश्यक है। इस प्रकार बंधन और मुक्ति दोनों का मूल बीज क्रिया है। कर्म-बंध में भावकर्म की मुख्यता है और मुक्ति में पुरूषार्थ मुख्य है। भाव और पुरूषार्थ दोनों ही क्रियात्मक हैं। एक का संबंध अतीत से है, दूसरे का संबंध वर्तमान से है। चतुर्थ अध्याय में क्रिया के साथ परिणमन के सिद्धांत का संबंध स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। जैसा कि प्रारंभ में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि क्रिया के अभाव में पदार्थ का अस्तित्व असंभव है। किसी भी अस्तित्व का आधार है - त्रिपदी अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप परिणमन। परिणाम या परिणमन पदार्थ में होने वाली एक प्रकार की अपरिस्पंदनात्मक क्रिया है। पदार्थ में परिस्पंदनात्मक क्रिया भी होती है। अपरिस्पन्दात्मक क्रिया सूक्ष्म स्तर पर होती है और परिस्पंदनात्मक स्थूल स्तर पर। यह एनादि तथा देशान्तर प्राप्ति रूप होती है। अपरिस्पंदनात्मक में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श तथा अगुरुलघु आदि गुणों का परिणमन होता है। जीव की तरह पुद्गल में भी दोनों प्रकार की क्रिया होती है। जीवों के दो प्रकार हैं- सिद्ध और संसारी । सिद्धों में परिस्पंदनात्मक क्रिया नहीं होती है, इस दृष्टि से वे अक्रिय हैं। किन्तु परिणमन रूप क्रिया तो सिद्धों में भी पाई जाती है। सशरीरी जीवों में प्रथम गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान तक के सभी जीव सक्रिय होते हैं। कोई भी देहधारी प्राणी बिना क्रिया के नहीं रह सकता। केवल चौदहवाँ गुणस्थान जो अत्यन्त अल्प समय का होता है, उसमें क्रिया अवश्य समाप्त हो जाती है। श्वासोच्छ्वास जैसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रिया भी नहीं रहती । सशरीरी जीव में अन्तराल गति में जहां स्थूल शरीर और तज्जनित प्रवृत्ति का अभाव रहता है, वहां भी कार्मण- शरीर की प्रवृत्ति चालू रहती है। ये सब क्रियाएं परिस्पंदनात्मक हैं। क्रिया का प्रेरक स्रोत कषाय है। जहां कषाय है, वहां क्रिया अवश्य पाई जाएगी। कषाय की विद्यमानता में अध्यवसाय, लेश्या, भाव योग इत्यादि के सभी तंत्र सक्रिय रहते हैं। अध्यवसाय चैतन्य का अत्यन्त सूक्ष्म स्पदंन है। उसकी अनेक धाराएं है। तरंगें सघन होकर भाव का रूप लेती है। भावों का सघन रूप क्रिया है। शरीर उस क्रिया की अभिव्यक्ति का माध्यम है। इस प्रकार अध्यवसायों से नाड़ी तंत्र अन्तःस्रावी ग्रंथियां, संस्थान, मस्तिष्क प्रभावित होते हैं। उनसे शरीर तंत्र सक्रिय बनता है। अध्यवसाय, लेश्या जैसी सूक्ष्म स्तर पर होने वाली क्रियाएं जैन तीर्थकरों के अतीन्द्रिय ज्ञान और जैनदर्शन की विशिष्टता की सूचक हैं। इसके अलावा एक ही क्रिया के संरंभ, समारंभ अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया 400
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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