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________________ 1. इन्द्रियों द्वारा गृहीत विषयों में प्रवृत्त होने से मन इन्द्रिय सापेक्ष है। 2. वह शब्द, रूप आदि समस्त विषयों को ग्रहण करने से सर्वार्थग्राही है। 3. भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों का संकलनात्मक ज्ञान करता है, इसलिये त्रैकालिक है। जैन साहित्य में मन के लिये कालिकी संज्ञा, दीर्घकालिकी संज्ञा, सम्प्रधारण संज्ञा, नो-इन्द्रिय, अनीन्द्रिय और छठी इन्द्रिय आदि शब्दों का प्रयोग किया है। 4 मन शब्द की अपेक्षा आगम में 'संज्ञा' शब्द अधिक प्रयुक्त हुआ है। मन आन्तरिक साधन है, उसका कोई नियत आकार नहीं है। चक्षु आदि इन्द्रियों समान प्रतिनियत स्थान, विषय और अवस्थिति का अभाव होने से इसे अनीन्द्रिय भी कहा गया है। मन के लिये अन्तःकरण तथा अनीन्द्रिय शब्द का प्रयोग भी होता है। चित्त, चेता, हृदय, स्वान्तः मानस ये सब मन के पर्यायवाची हैं। अभिधर्म दर्शन के अनुसार चित्त, मन, मानस, विज्ञान और हृदय समानार्थक हैं। कुछ लोग मन और मस्तिष्क को एक ही स्वीकार करते हैं, किन्तु अमेरिकन मनोवैज्ञानिक डॉ. ग्रीन ने आदमी के बहुत से हिस्से काट कर देखें। वह यह जानकर आश्चर्यचकित हुआ कि मस्तिष्क के हिस्से कट जाने के बाद भी मन के कार्य में कहीं बाधा उत्पन्न नहीं हुई। मन की क्रिया यथावत् चालू रही। इससे स्पष्ट हुआ कि मन और मस्तिष्क भिन्न है। मन का स्वरूप 7 न्याय, वैशेषिक, एवं मीमांसा दर्शन के अनुसार मन नित्य है, कारण रहित है। न्याय- -वैशेषिकों का विश्वास है कि जीव शुभ-अशुभ जैसा कर्म करता है, मन पर वैसे संस्कार संचित होते जाते हैं । प्राणी जब देह त्याग करता है तब उन समस्त संस्कारों से युक्त मन उन स्थानों तक गति करता है, जिस स्थान पर उसे नया शरीर धारण करना है। मन का एक स्थान से दूसरे स्थान तक गमन ही चेतन का पुनर्जन्म है। अतः न्यायवैशेषिकों के अभिमत से स्थानान्तरण जीव का नहीं, मन का होता है। जैन और सांख्य दर्शन की तरह वे कोई भी कार्मण शरीर या लिंग शरीर को स्वीकार नहीं करते। उन्होंनें सूक्ष्म शरीर के स्थान पर नित्य परमाणु रूप मन को माना है। उनके मत से मन के गतिशील होने से ही पुनर्जन्म की व्यवस्था होती है। अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया 362
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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