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________________ जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक दृष्टि से संस्थान को अधिक महत्त्व नहीं दिया क्योंकि मोक्ष प्राप्ति में कोई भी संस्थान बाधक नहीं है किन्तु संहनन की बात पर विशेष बल दिया है। सुदृढ़ शरीर यानी वज्र - ऋषभ नाराच संहनन बिना जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। इस अर्थ में संहनन का महत्त्व व्यक्ति के आत्मिक विकास की दृष्टि से विशेष अर्थ रखता है। जैनेतर दर्शन में शरीर की अवधारणा जैनेतर भारतीय दर्शनों में भी शरीर के संदर्भ में चिन्तन मिलता है। उपनिषदों में आत्मा के पांच कोषों की चर्चा हैं जो जैनदर्शन सम्मत पांच प्रकार के शरीरों से साम्यता रहते हैं। वे कोष हैं (1) अन्नमय कोष (2) प्राणमय कोष सांख्य दर्शन - - (3) मनोमय कोष (4) विज्ञानमय कोष (5) आनन्दमय कोष अन्नमय कोष से औदारिक शरीर की तुलना की जा सकती है। 31 महत् - स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है (अन्न मय वलय) शरीर के अन्तर्गत प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान आदि प्राणों की अवस्थिति। (प्राणमय वलय) मन की संकल्प - विकल्पात्मक क्रिया । बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया । आनन्द की उपलब्धि - सांख्य दर्शन में मुख्य दो तत्त्व हैं - प्रकृति और पुरूष । पुरूष कूटस्थ नित्य है। जगत् के संपूर्ण विकास और विस्तार में प्रकृति की मुख्य भूमिका रहती है। प्रकृति से महत्, अहंकार, मन, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच तन्मात्रा एवं पांच भूत उत्पन्न होते हैं। प्रकृति अहंकार पंच तन्मात्रा पंचभूत मन पंच ज्ञानेन्द्रियां पंच कर्मेन्द्रियां इन्ही तत्त्वों से शरीर का निर्माण होता है। प्रकृति सृष्टि के प्रारंभ में एक विशेष प्रकार का शरीर निर्मित करती है, जिसे लिंग शरीर कहते हैं। लिंग शरीर सदा साथ रहता है, उसकी गति अप्रतिहत है। क्रिया और शरीर-विज्ञान 321
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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