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________________ 30 अविद्यासव - अनित्य में नित्य का बोध | 3 बौद्ध परम्परा में प्रचलित अविद्या और जैन परम्परा में प्रचलित मिथ्यात्व समानार्थी हैं। काम कषाय का द्योतक है और भव पुनर्जन्म का द्योतक है। बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज की उत्पत्ति- यह शाश्वत परम्परा है। उसी तरह अविद्या से आश्रव और आश्रव से अविद्या जन्म लेती है। गीता में आसुरी संपदा को बंधन का हेतु बतलाया है। वे आसुरी संपदाएं हैं- दंभ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य (कठोरवाणी), अज्ञान आदि। 31 योग सूत्र के अनुसार अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग (आसक्ति), द्वेष और अभिनिवेश से बंध होता है। इनमें अविद्या प्रमुख है। 32 न्याय दर्शन में बंधकारक तत्त्व तीन हैं- राग, द्वेष और मोह | राग, द्वेषादि अज्ञान से उत्पन्न हैं। 33 तुलनात्मक दृष्टि से विमर्श करें तो अविद्या, राग-द्वेष को सभी ने प्रमुखता दी है। क्रिया और संवर स्थूल स्तर पर देखने से क्रिया और संवर में दूर तक कोई संबंध दिखाई नहीं देता है। किन्तु गहराई में जाने पर कुछ ओर ही तथ्य सामने आते हैं। क्रिया का संवर के साथ गहरा सम्बन्ध है । क्रिया के बिना संवर की साधना नहीं की जा सकती। संवर भी क्रिया है किन्तु आत्मा की वही क्रिया संवर के अन्तर्गत मानी जाती है जो बाह्य कर्म-परमाणुओं के आक्रमण से आत्मा को सुरक्षा प्रदान करती है अर्थात् कर्माकर्षण को रोकने की हेतुभूत क्रिया ही संवर है। स्थानांग में संवर आश्रव का प्रतिपक्षी है। 34 सास्रव अवस्था में आत्म-प्रदेशों में स्पंदन होता रहता है। आत्म-प्रदेशों की चंचलता आश्रव है। उनकी स्थिरता संवर है । र्माणुओं की गति को बदलने का एक उपक्रम संवर है। यह मोक्ष मार्ग की आराधना प्रकृष्ट साधन है। मोक्ष के साधक-बाधक तत्त्वों की चर्चा में आश्रव को बाधक और संवर को साधक माना है। संवर की परिभाषा एवं स्वरूप जैन परम्परा में कर्म-परमाणुओं के आस्रवण को रोकने के अर्थ में संवर शब्द का प्रयोग है। बौद्ध परम्परा में भी संवर शब्द क्रियाओं के निरोध अर्थ में ही स्वीकृत हैं। क्योंकि क्रिया और अन्तक्रिया 235
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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