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________________ (1) काय-निसर्गाधिकरण- औदारिकादि शरीर का अविधि से त्याग करना। जैसे- गिरिपतन, विषभक्षण, अग्निस्नान, आदि बाल मृत्यु। (2) वाङ्-निसर्गाधिकरण- वाणी के द्वारा किसी को दुष्प्रवृत्ति की ओर प्रेरित करना। (3)मन-निसर्गाधिकरण-अप्रशस्त चिन्तन रूप मन की क्रिया। यहां शंका हो सकती है कि जीवाधिकरण के 108 भेदों मे तीन योगों को सम्मिलित किया है और निसर्गाधिकरण में भी उन्हीं का समावेश होने से पुनरुक्ति दोष आता है। इस आशंका का परिहार करने के लिये टीकाकार का कहना है कि जीवाधिकरण में मन, वचन, काय रूप संपूर्ण योग का नहीं, केवल दुष्प्रवृत्ति मात्र का ग्रहण है जबकि निसर्गाधिकरण में योग से अधिक सम्बन्ध है। ___उपरोक्त विवेचन का फलित यह है कि जीव-अजीव रूप अधिकरण के निमित्त से योग और कषाय युक्त जीवों के सांपरायिक आश्रव होता है। कषाय के अभाव में ईर्यापथ कर्म का आश्रव होता है। कर्माकर्षणहेतुरात्म परिणाम आश्रवः। कर्म आकर्षण के हेतुभूत आत्म-परिणाम को आश्रव कहते हैं। आश्रव चेतना के छेद हैं। उनके द्वारा विजातीय तत्त्व- कर्म रजें निरन्तर आत्मा में प्रवेश करती रहती है। आत्मा की वैभाविक परिणति बंधन का कारण है। आशा और छंद कर्म-बंध का हेतु है।28 आशा का अर्थ है- भोगाभिलाषा। छंद का अभिप्राय है- ऐन्द्रिय सुख। इन दोनों के कारण अकुशल कर्म में प्रवृत्ति होती है। नये-नये कर्मों का आगमन होता हैं। 29 जैन परम्परा में कर्म-बंध का हेतु आश्रव माना गया है। बौद्ध परम्परा में भी बंध का हेतु आश्रव को ही माना है। आश्रव शब्द पाली भाषा के आसव का रूपान्तरण है। अनित्य में नित्य, दुःख में सुख, अनात्म में आत्म बुद्धि का नाम अविद्या है। अविद्या आश्रवजनित है और संसार रूपी दुःख का मूलस्रोत है। बौद्ध परम्परा में आश्रव के चार प्रकार हैं कामासव-शब्दादि विषयों को प्राप्त करने की इच्छा। भवासव- पंच स्कंध अर्थात् सचेतन देह में जीने की अभिलाषा। दृष्ट्यासव- दृष्टि का विपर्यास। 234 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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