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________________ (10) निकाचना- इस अवस्था में कर्मों का बंधन इतना प्रगाढ़ होता है कि उनकी काल-मर्यादा एवं तीव्रता में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। निकाचना की स्थिति में उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण एवं उदीरणा ये चारों करण निष्प्रभावी हो जाते हैं। आचार्य तुलसी ने निकाचना को परिभाषित करते हुए लिखा है-सब करणों के अयोग्य अवस्था को निकाचना कहते हैं।118 __ वैदिक परम्परा की क्रियमाण, संचित, प्रारब्ध अवस्थाएं जैन दर्शन में वर्णित क्रमश: बंध, सत्ता और उदय के समानार्थक हैं। बौद्ध दर्शन में नियत-विपाकी, सातिक्रमण अवस्थाएं जैन दर्शन में मान्य निकाचना से तुलनीय हैं। कर्म-फल का नाश नहीं होता किन्तु कर्म-फल का सातिक्रमण (संक्रमण) हो सकता है। बौद्ध कर्म-विचारणा में जनक, उपस्थम्भक, उपपीलक आदि भी कर्म की चार अवस्थाएं हैं। बौद्ध मत की जैन कर्म सिद्धांत से तुलना करें तो इस प्रकार संभव है जैन बौद्ध जनक उपस्थम्भक उपपीलक सत्ता उत्कर्षण अपकर्षण उपघातक उपशम निष्कर्ष की भाषा में उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रमण- ये चारों ही कर्म परिवर्तन के महत्त्वपूर्ण उपक्रम हैं। इस संदर्भ में विशेष ज्ञातव्य यह है कि चारों ही अवस्थाएं उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म परमाणुओं में घटित नहीं होती क्योंकि उनका उदय निश्चित है।119 मनोविज्ञान और मूल प्रवृत्तियां व्यक्तित्व का विकास मूल प्रवृत्तियों के रूपान्तरण पर निर्भर है।120 मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से मूलभूत प्रवृत्तियों में परिवर्तन की चार पद्धतियों का निरूपण किया है- 1. अवदमन, 2. विलयन, 3. मार्गान्तरीकरण, 4. शोधन या उदात्तीकरण। 1. अवदमन-मन में जो भी इच्छा उत्पन्न हुई, आवेग उत्पन्न हुआ, उसे रोक देना दमन है। जैन दृष्टि से इसकी तुलना उपशम अवस्था से की जा सकती है। जैसे क्रिया और पुनर्जन्म 213
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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