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________________ सिद्धांत के अन्तर्गत संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा एवं उपशम आदि कर्म की अवस्थाएं कर्मफल की अनियतता की ओर संकेत करती है। गति - आगति कर्मों के विपाक को भारतीय चिन्तकों ने दो भागों में विभक्त किया है- शुभ -अशुभ, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल। बौद्ध" सांख्य योग+6 न्याय वैशेषिक'7 उपनिषद्+8 जैन आदि सभी में इन दो भेदों की चर्चा है। मनुस्मृति में भी कहा गया है - मन - वचन और शरीर के शुभाशुभ कर्म - फल के कारण मनुष्य को उत्तम, मध्यम या अधम गति प्राप्त होती है। जीव गति आगति नैरयिक | मनुष्य, पंचेन्द्रिय- तिर्यञ्च मनुष्य,पंचेन्द्रिय- तिर्यञ्च असुर कुमार | मनुष्य, पंचेन्द्रिय- तिर्यञ्च मनुष्य,पंचेन्द्रिय- तिर्यश्च पृथ्वीकायिक | पृथ्वीकाय या अन्य योनि पृथ्वीकाय या अन्य योनि अप्काय से | अपनी-अपनी काया या अपनी-अपनी काया या मनुष्य तक | अन्य योनि अन्य योनि जीवों की गति और आगति कर्मों के आधार पर होती है। ज्ञानावरण आदि आठ कर्म हैं। प्रत्येक कर्म का पृथक्-पृथक् कार्य है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो कर्म आवारक हैं। ये आत्मा की ज्ञान तथा दर्शन शक्ति को आवृत्त करते हैं। मोहनीय कर्म विकारक है। अन्तराय कर्म आत्मा के वीर्य का प्रतिघात करता है। आत्म-स्वरूप को प्रभावित करने वाले ये चार कर्म घातिकर्म कहलाते हैं। ___ चार कर्म जीव के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। जैसे - शरीर रचना का मुख्य हेतु नाम कर्म है। इसके अनेक भेद-प्रभेद हैं। गति नाम कर्म के प्रभाव से जीव मनुष्य, तिर्यञ्च आदि गतियों में जाता है। सुख-दुःख के संवेदन का हेतु वेदनीय कर्म है। गोत्र कर्म प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा का हेतु है। जीव की आयु सीमा का निर्धारण आयुष्य कर्म से होता है। पन्नवणा पद छह के अनुसार सामान्यतः चारों गतियों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त उपपात-विरहकाल एवं उद्वर्तना-विरहकाल है। उपपात से तात्पर्य किसी अन्य गति से मरकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव या सिद्ध रूप में उत्पन्न होना है। विरहकाल का तात्पर्य उतने समय तक नरक आदि में किसी नये क्रिया और पुनर्जन्म 195
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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