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________________ जा सकता है किन्तु उसका भोग अनिवार्य है। यह कर्म जैन दर्शन में मान्य संक्रमण नामक कर्म, अवस्था से साम्य रखता है। (ब) अनियत विपाकी 1. दृष्ट धर्म वेदनीय- वह कर्म, जिसका फल इसी जन्म में मिलता है किन्तु फल - भोग आवश्यक नहीं। 2. उपपद्य वेदनीय-वह कर्म, जो उपपन्न होकर समन्तर जन्म में फल देने वाला है किन्तु उसका फल भोग हो ही, यह आवश्यक नहीं है। 3. अपर पर्याय वेदनीय- वह कर्म, जो विलम्ब से फल देने वाला है किन्तु उसका फल-भोग आवश्यक नहीं है। 4. अनियत वेदनीय-अनियत विपाकी वह कर्म है, जो अनुभूति और विपाक दोनों दृष्टियों से अनियत है। ___ इस प्रकार बौद्ध दर्शन में वर्णित नियतता-अनियतता की तुलना जैन कर्म-सिद्धांत के निकाचित एवं दलिक कर्मों के साथ की जा सकती है। बौद्धों में फलगत विविधता के कारण कर्म के आधार पर जनक, उत्थम्भक, — उपपीड़क, उपघातक ऐसे चार प्रकार और उल्लिखित हैं - जनक-नये जन्म को उत्पन्न कर विपाक प्रदान करता है। उत्थम्भक-अपना विपाक प्रदान न कर दूसरों के विपाक में सहायक बन जाता है। उपपीडक- अन्य कर्मों के विपाक में बाधक बनता है। उपघातक-अन्य कर्मों के विपाक का घात कर अपना ही विपाक प्रकट करता है।36 फलदान के क्रम को लक्षित कर अन्य चार प्रकारों का भी उल्लेख मिलता है। गरूक, बहुल अथवा आचिण्ण, आसन्न तथा अभ्यस्त। इनमें गरूक तथा बहुल दूसरों के विपाक को रोककर पहले अपना फल प्रदान करते हैं। आसन्न का अर्थ हैमृत्यु के समय किया गया। वह भी पूर्व कर्म की अपेक्षा अपना फल पहले दे देता है। मरणकाल के समय कर्मानुसार शीघ्र ही नया जन्म प्राप्त होता है। अभ्यस्त कर्म इन तीनों के अभाव में फल दे सकता है।37 192 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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