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________________ इससे विपरीत जिन कर्मों के सम्पादन में कषाय की मन्दता होती है, उनका बंधन शिथिल होता है। उनके विपाक का संवेदन आवश्यक नहीं होता। ये अनियत विपाकी होते हैं। उनके फल में तपस्या आदि सत्साधनों से परिवर्तन भी किया जा सकता है। कर्म-फल में परिवर्तन का सिद्धांत अनेकान्त दृष्टि से ही समझा जा सकता है। उन्हीं कर्मों के फल में परिवर्तन संभव है जिनका बंध अनियत विपाकी हो। नियत विपाकी का भोग अनिवार्य है। नियत और अनियत के पीछे भी विभज्यवादी दृष्टिकोण रहा है। यदि एकान्ततः कर्म-विपाक की नियतता को स्वीकार करें तो आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न खड़ा होता है क्योंकि नियत को बदलना संभव नहीं है। यदि एकान्ततः अनियत विपाकी माना जाये तो नैतिक व्यवस्था की कोई मूल्यवत्ता नहीं रह जाती। अत: नियत-अनियत विपाकी मानना ही तर्क संगत है। अन्य दर्शनों में कर्म-फल की नियतता-अनियतता न्याय वार्तिककार के अभिमत से कर्म का फल अनियत है। उनके मत में नियम नहीं कि कर्म का फल इस लोक, परलोक या जन्मान्तर में ही मिलता है। कर्म अपना फल उस स्थिति में देते हैं जब सहकारी कारणों का सन्निधान हो तथा सन्निहित कारणों में भी कोई प्रतिबन्धक न हो। समान भोग वाले अन्य प्राणियों के विद्यमान कर्म द्वारा भी कर्म की फल शक्ति के प्रतिबंध की संभावना है। कर्म की गति दुर्विज्ञेय है। सामान्य मनुष्य . को इस प्रक्रिया का बोध नहीं होता।35(क) बौद्ध दर्शन में कर्मों के विपाक की नियतता और अनियतता पर विमर्श किया गया है। दोनों प्रकार के कर्म उन्हें मान्य हैं। कुछ बौद्ध आचार्यों ने नियत विपाकी और अनियत विपाकी कर्मों को चार-चार भागों में विभक्त किया है। 5(ख) (अ) नियत विपाकी 1. दृष्ट धर्म वेदनीय कर्म - जिसका फल उसी जन्म में अनिवार्य रूप से प्राप्त होता है। 2. उपपद्य वेदनीय कर्म - जिसका फल उस जन्म के पश्चात् होने वाले जन्म में अनिवार्य रूप से मिलता है। 3. अपर पर्याय वेदनीय कर्म - जो विलम्ब से फल देता है। 4. अनियत वेदनीय किन्तु नियत विपाक कर्म - जिसका स्वभाव बदला क्रिया और पुनर्जन्म 191
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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