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________________ लोक का ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसका अस्तित्व तो हो किन्तु उत्पादव्यय-ध्रौव्य रूप परिणति रूप क्रिया से रहित हो, यदि यह परिणति-क्रिया न हो तो वस्तु का वस्तुत्व ही संगत नहीं हो पाएगा। परिणतिरूप क्रिया से युक्त होने के कारण, वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य सक्रिय है, 78 और पर्यायार्थिक नय से प्रत्येक द्रव्य निष्क्रिय। 79 अगुरुलघुगुणकृत अर्थक्रिया: प्रत्येक पदार्थ में निहित 'अगुरुलघु' गुण व अविभाग गुणांशों में प्रतिसमय होने वाली षड्विध हानि - वृद्धि का निरूपण भी यहां प्रासंगिक है। धर्म, अधर्म, आकाश आदि अमूर्त व निष्क्रिय द्रव्यों में भी स्वप्रत्ययया परप्रत्यय उत्पाद-व्यय कैसे सम्भव हैं - इस प्रसंग में जैन आचार्यों ने अगुरुलघुगुण की चर्चा की है। इस गुण की षट्स्थानपतित हानि-वृद्धि के कारण सभी द्रव्यों में स्वप्रत्ययउत्पाद - व्यय (परिणमन) प्रतिक्षण प्रवर्तमान रहते हैं। 80 प्रत्येक पदार्थ में अनन्त गुण होते हैं जिनमें प्रत्येक अनन्त - अनन्त अविभागी गुणों से युक्त होता है। इन गुणांशों के आधार पर द्रव्य में छोटापन, बड़ापन आदि विभाग सम्भव हो पाते हैं। इन गुणांशों को अविभागी प्रतिच्छेद भी कहा जाता है। द्रव्य के अनन्त गुणों में अस्तित्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व ये छः सामान्य गुण हैं। जिस शक्ति के निमित्त से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप में नहीं बदलता या एक शक्ति दूसरी शक्तिरूप में नहीं बदलती, वह 'अगुरुलघु' गुण है। इस गुण के अविभागी प्रतिच्छेदों के छः प्रकारों से कम होने और बढने को छः गुनी हानि - वृद्धि कहा जाता है। अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि ये छ: वृद्धियां हैं। अनन्तभागहानि, असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि और अनन्त गुण हानि ये छ: हानियां हैं। दोनों मिलकर 'षट्स्थानपतित हानिवृद्धि' कहलाती हैं। 81 धर्म आदि द्रव्यों में अपने-अपने अगुरुलघु गुण के परिणमन से स्वप्रत्यय उत्पाद व व्यय होता रहता है। जब किसी दूसरे के निमित्त से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आदि एक प्रदेश को छोड़ कर दूसरे प्रदेश के साथ सम्बद्ध होते हैं, तब धर्म, अधर्म आदि में परप्रत्यय उत्पाद व व्यय का होना माना जाता है। अगुरुलघु गुण का पूर्व अवस्था का त्याग होने पर व्यय, उत्तर अवस्था की उत्पत्ति होने पर उत्पाद माना जाता है। सभी स्थितियों में मौलिक स्वरूप जो बना रहता है, वह 'ध्रौव्य' है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि अर्थक्रिया का जो सूक्ष्म, व्यापक एवं वैज्ञानिक विवेचन जैसा जैन ग्रन्थों में मिलता है, वैसा अन्य दर्शनों में प्राप्त नहीं होता और XX
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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