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________________ (ii) लाभ अन्तराय कर्म- इस कर्म के उदय से उदार दाता की उपस्थिति, देय वस्तु, याचना में कुशल होने पर भी दान का लाभ प्राप्त नहीं हो सकता । अर्थात् सारी अनुकूलताओं के रहने पर भी जिसके कारण अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है, लाभान्तराय कर्म है। वह (ii) भोग अन्तराय कर्म - जिस वस्तु का एक बार ही भोग संभव है, वह भोग कहलाती है। जैसे अशन, पान, खाद्य, पेय पदार्थ, फल - फूल आदि । इस कर्म के उदय से भोग्य पदार्थ को सामने होने पर तथा त्याग प्रत्याख्यान के अभाव में तीव्र इच्छा होने पर भी भोग नहीं सकता। उदाहरण के लिए- शुगर की बीमारी में मिठाई आदि नहीं खा सकते। पेट की खराबी के कारण सरस भोजन तैयार होने पर भी खाना संभव नहीं हो पाता। (iv) उपभोग अन्तराय कर्म - जिस वस्तु का बार- बार भोग संभव हो वह उपभोग कहलाती है। जैसे ; मकान, वस्त्र, आभूषण आदि। उपभोग सामग्री उपलब्ध होने पर भी इस कर्म के उदय से भोगे नहीं जा सकते। (v) वीर्य अन्तराय कर्म - समर्थ हो, रोग रहित युवा हो, फिर भी इस कर्म के उदय से सामर्थ्य प्रकट नहीं कर सकता तथा इसके प्रभाव से जीव के उत्थान, कर्म, बल, और पराक्रम एवं पुरूषार्थ क्षीण हो जाते हैं। उक्त पांच भेदों के अतिरिक्त ठाणांग सूत्र में अन्तराय कर्म के दो नये प्रकारों का उल्लेख मिलता है-102 (i) प्रत्युत्पन्न विनाशित अन्तराय कर्म-जिसके उदय से प्राप्त वस्तु का विनाश हो जाता है अर्थात् इसका कार्य है, वर्तमान में प्राप्त वस्तु को विनष्ट करना, उपहृत करना । (ii) पिधत्ते आगामि पथ - भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति का अवरोधका अन्तराय कर्म के सम्बन्ध में एक अवधारणा यह भी प्रचलित है कि किसी भी वस्तु की उपलब्धि में बाह्य विघ्नों का उपस्थित होना । प्रश्न हो सकता है कि क्या अन्तराय कर्म का सम्बन्ध बाह्य - -पदार्थों की अप्राप्ति से है ? समाधान दिया गया कर्म ग्रंथ की टीका में अन्तराय का अर्थ विघ्न किया है। जिससे दानादि लब्धियां विनष्ट होती है उसे विघ्न कहते हैं । लब्धि का अर्थ सामर्थ्य है। अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया 172
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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