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________________ (i) जाति गोत्र- मातृ पक्षीय विशिष्टता के सद्भाव अभाव का हेतुभूत कर्म। (ii) कुल गोत्र-पितृपक्षीय विशिष्टता के हेतुभूत कर्म सद्भाव अभाव का हेतुभूत कम। (iii) बल गोत्र- बल की विशिष्टता या अविशिष्टता-विहीनता का हेतुभूत कर्म। (iv) रूप गोत्र-रूप विशिष्टता या अविशिष्टता-विहीनता का हेतुभूत कर्म। (v) तप गोत्र- तप विशिष्टता या अविशिष्टता-विहीनता का हेतुभूत कर्म। (vi) श्रुत गोत्र- श्रुत विशिष्टता या अविशिष्टता-विहीनता का हेतुभूत कर्म। (vii) लाभ गोत्र- लाभ विशिष्टता या अविशिष्टता-विहीनता का हेतुभूत कर्म। (viii) ऐश्वर्य गोत्र- ऐश्वर्य विशिष्टता या अविशिष्टता-विहीनता का हेतुभूत कर्म। नाम और गोत्र कर्म का संबंध शारीरिक और मानसिक रचना एवं उनकी विशिष्टता से है। शरीर का शुभत्व-अशुभत्व, उच्च और निम्नता मानसिक सुख-दुःख का भी कारण बनता है। प्रश्न हो सकता है- नाम कर्म से शुभ-अशुभ शरीर की प्राप्ति होती है। गोत्र कर्म से उच्चता नीचता मिलती है। शुभ और उच्च शरीर,अशुभ और नीच शरीर में अन्तर क्या है ? समाधान यह है कि नाम कर्म का सम्बन्ध उन शारीरिक गुणों से हैं जो जिनका सम्बन्ध कुल, वंश विशेष से नहीं जबकि गोत्र कर्म का सम्बन्ध उन शारीरिक गुणों से है जो कुल, वंश से सम्बन्धित हैं और वंशानुक्रम से प्राप्त होते हैं। 8. अन्तरायकर्म जिस कर्म के उदय से वीर्य या शक्ति प्राप्त होती है वह अन्तराय कर्म कहलाता है। अथवा लेन-देन तथा एक - अनेक बार उपभोग और सामर्थ्य प्राप्त करने में जो कर्म अवरोध उपस्थित करता है, वह अन्तराय कर्म है।100 अन्तराय कर्म भंडारी के समान है। राजा का आदेश प्राप्त होने पर भी भंडारी की इच्छा के बिना दान प्राप्त नहीं होता। वैसे ही अन्तराय कर्म दानादि में बाधा उपस्थित करता है।101 अन्तराय कर्म के पांच प्रकार हैं। (i) दानान्तराय कर्म- दान के लिए अनुकूल सामग्री हो, उत्तम पात्र भी हो, सब कुछ सुविधा होने पर भी इस कर्म के फलस्वरूप जीव दान नहीं दे सकता। क्रिया और कर्म - सिद्धांत 171
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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