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________________ शुद्धता - अशुद्धता में गतिबंध की चर्चा महत्त्वपूर्ण है। पहले विकल्प का फल है नरकगति। क्रमशः दूसरे तीसरे का फल है- तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति, चौथे विकल्प का अधिकारी स्वर्गगामी होता है। जीवन के हर पक्ष के साथ भाव का सम्बन्ध है। मानसिक भावों के आरोह अवरोह में जिम्मेदार भावधारा है। इस संदर्भ में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की घटना उल्लेखनीय है।'' राजर्षि ध्यानस्थ खड़े थे। नगर पर शत्रु सेना के आक्रमण की सूचना मिली। राजर्षि स्वयं को भूल गये । पुत्र और राज्य पर मूर्च्छा प्रगाढ़ बन गई। भाव स्तर पर युद्ध करने लग गये। श्रेणिक की सवारी उधर से निकली। मुनि की एकाग्रता से प्रभावित हो उन्होंने महावीर से पूछा - इस समय राजर्षि आयुष्य पूर्ण करे तो कहां जायेगें। भगवान ने कहा - सातवीं नरक । श्रेणिक सुनकर स्तब्ध रह गया। कुछ समय के बाद महावीर ने कहा- राजर्षि अभी आयुष्य पूर्ण करे तो सर्वोच्च देवलोक में जायेगें। उनकी भावधारा बदल गई है। निषेधात्मक चिन्तन विधेयात्मक में रूपान्तरित हो गया है। प्रशस्त लेश्याओं में आरोहण करते हुए केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। विशुद्धता का सम्बन्ध भाव विशुद्धि से है। भावों की शुद्धि ही अर्थपूर्ण है। जीवन की सारी प्रवृत्तियों, क्रियाओं का प्रेरक तत्त्व भाव ही है । 1. औदयिक भाव 2. औपशमिक भाव 3. क्षायिक भाव 4. क्षायोपशमिक भाव ( 21 ) 4 गति, - नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव 4 कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ, 3 लिंग - स्त्री, पुरूष, नपुंसक मिथ्यात्व, अज्ञान, असंयम, असिद्धत्व (2) (9) (18) 6 लेश्या -कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म, शुक्ल, उपशम सम्यक्त्व, उपशम चारित्र ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग-उपभोग वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्र | 4 ज्ञान, 3 अज्ञान, 3 दर्शन, 5 लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र, संयमासंयम 1 जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व 5. पारिणामिक भाव (3) कर्म - बंध प्रक्रिया और भाव उपशम आदि चार भाव कर्म - बंध में निमित्त नहीं बनते। बंध का हेतु केवल औदयिक भाव है। यद्यपि बंधन में आठों कर्मों का योग रहता है किन्तु मोहकर्म की अहं भूमिका रहती है। क्रिया और कर्म - सिद्धांत 151
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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