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________________ व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिये भावों का अध्ययन अत्यावश्यक है। क्षयोपशम केवल चार घाती कर्मों का होता है, अघाती का नहीं। घाती कर्म आत्मा के मौलिक गुणों की घात करते हैं किन्तु सर्वथा नहीं इसलिये उनका क्षयोपशम हो सकता है। अघाती कर्मों का उदय तथा क्षय ही होता है, उपशम नहीं। पातञ्जल आदि जैनेतर दर्शनों में भी भावों के समकक्ष क्लेशों का उल्लेख है। पातंजल योग में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश- इन पांच क्लेशों को मोह का परिणाम माना है। क्लेश-प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न एवं उदार इन चार रूपों में अभिव्यक्त होते हैं। 62 प्रसुप्तावस्था की तुलना हम अबाधाकाल से कर सकते हैं। तनु की उपशम अथवा क्षयोपशम से और उदार की उदय के साथ तुलना की जा सकती है।63 __ साधक श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि, प्रज्ञा द्वारा अपने पुरुषार्थ से क्लेशों का क्षय करता है। अंत में असंप्रज्ञात समाधि को प्राप्त करता है। समाधि प्राप्ति के लिये किये गये प्रयत्न की क्षयोपशम तथा समाधि प्राप्त अवस्था की तुलना क्षायिक भाव से की जा सकती हैं। ___ कर्म शास्त्र में आवेग नियंत्रण की तीन पद्धतियां है- उपशम, क्षयोपशम और क्षय। मनोविज्ञान में उपशम को दमन कहा है। क्षयोपशम को मनोविज्ञान में मार्गान्तरीकरण या उदात्तीकरण कहा है। तीसरी क्षय या क्षयीकरण विलयन की प्रक्रिया है। इसमें आवेग सर्वथा समाप्त हो जाते हैं, निर्मूल हो जाते हैं। भावों के प्रभेद मोहकर्म का उदय आत्म-पतन का और उसका उपशम, क्षय, क्षयोपशम आत्मोन्नति का हेतु है। कहा भी है 'उजला न मेला कह्या जोग, मोह कर्म संजोग - विजोग।' 64 मोह के साहचर्य से जीव की प्रवृत्ति अशुभ और अभाव से शुभ बनती है। भावों की प्रशस्तता अप्रशस्तता के आधार पर चार भंग होते हैं 1. कर्दम उदक समान मलिनतर 2.खञ्जन उदक समान मलिन 3. बालुका उदक समान निर्मल 4.शैल उदक समान निर्मलतर 150 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्याः क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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