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________________ आचार्य पूज्यपाद की धारणा भिन्न है। वे पुण्य को आत्म साधना में सहाय तत्त्व मानते हैं। 34 इसमें महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि पुण्यार्जन की सारी क्रियाएं जब अनासक्त भाव से की जाती हैं तो वे बंध का कारण न होकर, कर्म क्षय की हेतु बन जाती हैं। आचारांग में आश्रव और परिश्रव इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। एक ही क्रिया आश्रव (बंधन) का कारण भी हो सकती है और परिश्रव - मुक्ति का कारण भी। पुण्य की कामना अविहित पुण्य की हेयता के विषय में जैन परम्परा में एक मत होते हुए भी उपादेयता को लेकर मतभेद है। आचार्य कुंदकुंद और आचार्य भिक्षु दोनों ने पुण्य को संसार वृद्धि का कारण माना है। अत: पुण्य हेय है। 35 सामान्यतः पुण्य को उपादेय माना जाता हैं। जिनभद्र गणी कहते है- परमार्थ दृष्टि में पुण्य फल अशुभ कर्म का जनक होने के कारण दुःख ही है। आचार्य भिक्षु और जिनभद्र गणी दोनों के विचारों का निष्कर्ष एक ही है। महर्षि पतञ्जली ने पातञ्जल योगदर्शन में पुण्य - पाप के समकक्ष ही क्लेश मूल की व्याख्या की है-36 शुभयोग 1 पुण्य जैन I आश्रव - अशुभयोग | पाप पातञ्जल 1 क्लेश मूल धर्म पुण्य वेदनीय नाम गोत्र आयु वेदनीय नाम गोत्र आयु जाति 36ख आयु भोग जाति आयु भोग 37 ये भेद वस्तुतः पाप बंध के हेतु हैं। अत: उपचार से प्राणातिपात आदि क्रियाओं को पाप कहा है। पाप के जनक है- राग-द्वेष है। मोह- जिसके रागद्वेषादि होते हैं, उसके अशुभ परिणाम पाप के हेतु है। परमात्म प्रकाश में कहा है- यह जीव पापोदय से नरकगति और तिर्यञ्च गति को पाता है। पुण्योदय से देव होता है। पुण्य-पाप के मेल से मनुष्य बनता है। पुण्य - पाप दोनों के क्षय से मोक्ष प्राप्त है। 38 (क) गीता के अनुसार बुद्धिमान वह है जो सुकृत (पुण्य) दुष्कृत (पाप) दोनों का परित्याग करे। इन संदर्भों से सिद्ध हो जाता है कि अध्यात्म साधक के लिये पुण्य पाप दोनों त्याज्य है। क्रिया और कर्म - सिद्धांत अधर्म 1 पाप 141
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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