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________________ और काया। ये तीनों योग शुभ - अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं। शुभ परिणमन से होने वाला शुभयोग और अशुभ परिणमन से होने वाला अशुभयोग कहलाता है। तत्त्वार्थ सूत्र शुभाशुभ योगाश्रव को पुण्य-पाप कहा गया है। शुभयोग से होने वाला बंधन पुण्यरूप और अशुभ से होने वाला बंधन पाप रूप होता है। जैन तत्व दर्शन की भाषा में शुभकर्मों की उदयावस्था को पुण्य और अशुभ कर्मों की उदयावस्था को पाप कहा जाता है। सत् कर्म एवं असत् कर्म भी क्रमशः पुण्य और पाप के वाचक हैं, इसलिए पुण्य-पाप सत्क्रिया तथा असत्क्रिया के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं। जीव का परिणमन दो तरह से होता है - मोह, राग द्वेष आदि अशुभ भावों में अथवा ध्यानादि शुभकार्यों में। भावों के अनुरूप सूक्ष्म पुद्गलों का आत्मा के साथ अनुबंध होता है। मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया से आत्म प्रदेशों में प्रकम्पन होता है। इससे कर्म - परमाणु आत्मा की ओर आकृष्ट हो जाते हैं। शुभ-अशुभ पुद्गलों के आकर्षण के हेतु अलग-अलग हैं। एक ही हेतु से द्विविध परमाणुओं का आकर्षण संभव नहीं है। पुण्य का बंध शुभयोग से होता है। शुभयोग, शुभभाव, शुभ परिणाम आदि जीव के पर्याय हैं इसलिए एकार्थक हैं। पाप का बंध अशुभ योग से होता है। अशुभ योग, अशुभ भाव, अशुभ परिणाम आदि एकार्थक है। वे ही पुद्गल उदयकाल में सुख - दुख रूप फल देने के कारण पुण्य-पाप कहलाते हैं। आत्मप्रदेशों के साथ बंधे हुए कर्म - पुद्गल जब तक फल नहीं देते तब तक सुख - दुःख की अनुभूति नहीं होती। उदय काल में ही वे सुख - दुखद संवेदन के निमित्त बनते हैं। कई आचार्य मंद कषाय से पुण्य बंध मानते हैं। 32 आचार्य भिक्षु इससे सहमत नहीं। उनके अभिमत से मंद कषाय पुण्याकर्षण तु नहीं । कषाय की मंदता और अन्तराय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से होने वाले शुभयोग के द्वारा नामकर्म के योग से पुण्य का आकर्षण होता है। पुण्य- पाप दोनों बंधन व्यवहार के धरातल पर पुण्य काम्य है, पाप अकाम्य । अध्यात्म की भूमिका पर दोनों हैं। ये पौद्गलिक होने से आत्मोदय के बाधक हैं। दोनों बेड़ियां है। अंतर इतना ही है कि पुण्य सोने की बेड़ी है, पाप लोहे की बेड़ी है। इस प्रकार पुण्य-पाप दोनों ही बंधन रूप है। 33 140 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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