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________________ क्रिया और लेश्या जैन चिंतकों ने वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणाम पर गहरा चिंतन किया हैं। इस चिंतन का परिणाम - लेश्या का सिद्धांत है। जैन शास्त्रों में लेश्या की चर्चा अत्यन्त प्राचीन है। आज के मानस शास्त्रियों के लिये भी मननीय है। सर्वाधिक प्राचीन आगम आचारांग के यह प्रथम श्रुत स्कन्ध में प्रयुक्त अबहिलेस्से' शब्द लेश्या की प्राचीनता का साक्ष्य है। अबहिलेस्से का अर्थ हैं- मन संयम से बाहर न निकलें। सूत्रकृतांग में प्रयुक्त 'सुविसुद्धलेस्से' और औपपातिक में अपडिलेस्स' शब्द भी लेश्या सिद्धांत की प्राचीनता के साक्ष्य हैं। लेश्या की चर्चा जैन साहित्य के किसी एक ग्रंथ या कृति में उपलब्ध नहीं होती। अनेक ग्रंथों में प्राप्त है। उत्तराध्ययन में ग्यारह तथा भगवती और प्रज्ञापना में पन्द्रह द्वारों के माध्यम से लेश्या का विवेचन किया गया है। वे द्वार हैं 1. परिणाम 6. अप्रशस्त 11. प्रदेश 2. वर्ण 7. संक्लिष्ट 12. वर्गणा 3. रस 8. उष्ण 13. अवगाहना 4. गंध 9. गति 14. स्थान 5. शुद्ध 10. परिमाण 15. अल्प बहुत्व उत्तराध्ययन के 11 द्वारों में लेश्या की चर्चा है किन्तु उन द्वारों में नाम, लक्षण, स्थिति, आयु ये चार अलग हैं। ' दिगम्बर परम्परा में अकलंक ने तत्त्वार्थ राजवार्तिक में नाम भेद से सोलह अनुयोगों के माध्यम से लेश्या का निरूपण किया हैं। वे अनुयोग हैं 1. निर्देश 5. कर्म 9. संख्या 13. काल 2. वर्ण 6. लक्षण 10. साधना 14. अन्तर 3. परिणाम 7. गति 11. क्षेत्र 15. भाव 4. संक्रम 8. स्वामित्व 12. स्पर्शन 16. अल्प बहुत्व गोम्मटसार में भी इस प्रकार का विवेचन देखने को मिलता है किन्तु उनमें कई द्वार ऐसे हैं, जिनका उल्लेख पूर्व ग्रंथों में नहीं है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक दृष्टि से लेश्या सिद्धांत का ई.पू. पांचवीं शताब्दी से ई. पू. दसवीं शताब्दी तक क्रमिक विकास हुआ है। 11-12 वीं शताब्दी के बाद यह विकास-क्रम प्रायः क्रिया और कर्म - सिद्धांत 125
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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