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________________ पुष्ट और खरीददार के प्रतनु होती है। कारण, खरीददार का उस धन पर अधिकार नहीं रहा। निष्कर्ष यह है कि वस्तु और धन जिसके अधिकार में है, उसके क्रिया सघन होती है। जिसके अधिकार में नहीं उसके क्रिया पतली होती है। वेदना और क्रिया क्रिया और वेदना में कार्य-कारण सम्बन्ध है। वृत्तिकार ने क्रिया के दो अर्थ किये हैं। क्रिया से होने वाला कर्म-बंध अथवा क्रिया ही कर्म-बंध है। वेदना का अर्थ हैक्रिया प्रतिक्रिया का अनुभव। अनुभव कर्म का ही होता है। कर्म नहीं तो अनुभव किसका?167 क्रिया कर्म की बीज है तो वेदना उसका फल है। बीज के अभाव में फल संभव नहीं है ? यह एक सार्वभौमिक सत्य है। फिर मंडित पुत्र की जिज्ञासा के पीछे हेतु क्या है कि दुःख क्रिया पूर्वक होता है या दुःख होने के पश्चात कोई क्रिया होती है ?जैसे वृत्तिकार ने क्रिया के दो अर्थ किये वैसे वेदना के भी दो अर्थ हैं- दुःख और अनुभव। कुछ दुःखवादी दुःख को अहेतुक मानते हैं। परिस्थितिवादी दुःख को परिस्थिति जन्य स्वीकार करते हैं। लगता है, इन विकल्पों को लक्षित कर ही मंडित पुत्र ने प्रश्न किया। भगवान् महावीर ने प्रत्युत्तर में कहा कि क्रिया दुःख का कारण है, इसलिये पहले होती है। दुःख कार्य है अतः पीछे होता है।168 इसकी व्याख्या का दूसरा दृष्टिकोण इस प्रकार है- क्रिया का अर्थ है आश्रव और वेदना का अर्थ है-कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध। आश्रव और कर्म का पौर्वापर्य जानने के लिये मंडित पुत्र ने प्रश्न पूछा। उसके उत्तर में भगवान का कहना था कि पहले आश्रव फिर कर्म-पुद्गलों का बंध होता है। मंडित ने पुनः पूछा- भंते ! क्या श्रमण-निग्रंथों के क्रिया होती है?, यदि होती है तो वह कैसे? भगवान महावीर ने कहा-मंडित पुत्र ! उसका कारण है-प्रमाद और उसमें निमित्त बनता है- योग । प्रमाद और योग इन दो हेतुओं से क्रिया होती है।169 ठाणं में चार हेतुओं का उल्लेख है170 उत्तरवर्ती साहित्य में पांच कारण बतलाये गये हैं। कर्म - बंध के पांच कारणों का प्रयोग प्रथम उमास्वाति ने किया है- 'मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमादकषाय-योगा बंधहेतवः' 171 कर्मशास्त्र में कर्म-बंध के चार कारण निर्दिष्ट हैं। उनमें प्रमाद का उल्लेख नहीं है।172 सभी प्रकार के वर्गीकरण में यही प्राचीन प्रतीत होता है किन्तु प्रमाद की निश्चित परिभाषा फलित नहीं हो सकी। सावद्य प्रवृत्ति मात्र को प्रमाद माने तो योग का उससे भिन्न कोई अर्थ नहीं होता। उस स्थिति में अशुभयोग और प्रमाद एकार्थक बन जायेगें। 173 यदि दो हेतु हैं तो दोनों की स्वतंत्र सीमा होनी चाहिये। सीमा की दृष्टि से आचार्य महाप्रज्ञ का निष्कर्ष इस प्रकार है कि कर्म बंध की प्रक्रिया में मुख्यतः हेतुभूत क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप 87
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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