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________________ और अनर्थदण्ड विरति को गुणव्रत स्वीकार किया है।136 इस मतभेद का उल्लेख महापुराण में मिलता है।137 संभावना की जा सकती है कि कालगत भेद के कारण ही प्रथम तीन शिक्षाव्रतों को गुणव्रत के रूप में स्थापित कर लिया गया है। श्रावक के बारह व्रतों के बाद अपश्चिममारणान्तिक-संलेखना का उल्लेख है। शरीर और कषाय- दोनों को कृश करने के लिये जो तपस्या की जाती है, उसे संलेखना कहते हैं। उसका प्रयोग समाधिमरण पर्यन्त चलता रहता है इसलिये इसका नाम पश्चिम-मारणान्तिक संलेखना है। वृत्तिकार का अभिमत है कि अमंगल का परिहार करने के लिये पश्चिम के स्थान पर अपश्चिम शब्द का प्रयोग है।138 संलेखना मृत्यु के भय से मुक्त होने की साधना है। भगवान महावीर ने साधक को अभय और पराक्रमी बनने का मंत्र दिया है। संलेखना उस मंत्र व सिद्धि का उपाय है। संलेखना का विधान मुनि और श्रावक दोनों के लिये है। मूलगुण व उत्तर गुण के संदर्भ में गौतम स्वामी के कुछ प्रश्न हैं। उनमें सर्वप्रथम गौतम पूछते हैं- भंते ! जीव क्या मूल गुण प्रत्याख्यानी है ? उत्तर गुण प्रत्याख्यानी है? या अप्रत्याख्यानी है ?139 भगवान महावीर ने कहा- गौतम ! जीव मूल गुण प्रत्याख्यानी, उत्तर गुण प्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी तीनों है। व्रत ग्रहण की चेतना प्राणीमात्र में समान नहीं होती। मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से अप्रत्याख्यानावरण की चार प्रकृतियां ऐसी हैं जिनका तीव्र विपाक प्राणी को प्रत्याख्यान के अभिमुख नहीं बनने देता। कुछ मनुष्य और तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय अपने विशुद्ध अध्यवसायों से उसके विपाक को मंद कर देते हैं इसलिये वे प्रत्याख्यान के लिये उद्यत हो जाते हैं। नैरयिक या देवों में ऐसा पुरुषार्थ प्रकट नहीं होता। शेष सभी अमनस्क जीव मानसिक विकास के अभाव में अप्रत्याख्यानी कहलाते हैं। प्रत्याख्यान की क्षमता कुछ जीवों में होती है, कुछ जीवों में नहीं इसलिये जीवों के ये तीन विभाग किये हैं। केवल मूल गुणों से सम्पन्न मुनियों की अपेक्षा उत्तर गुण वाले संख्यात गुण अधिक हैं क्योंकि अधिक मुनि उत्तर गुण संपन्न ही होते हैं। मनुष्यों (श्रावकों) में भी मूल गुण की अपेक्षा उत्तर गुण वाले असंख्यात गुण अधिक हैं।140 मनुष्य के दो प्रकार हैं- गर्भज और सम्मूर्छिम। गर्भज मनुष्य संख्येय हैं। सम्मूर्छिम मनुष्य असंख्येय। इस अपेक्षा से ही अप्रत्याख्यानी मनुष्य को संख्येय गुण अधिक कहा है। सर्व प्रत्याख्यान क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप 79
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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