SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्याख्यान सर्व उत्तर गुण प्रत्याख्यान देश उत्तर गुण प्रत्याख्यान अनागत दिग्वत अतिक्रांत प्रत्याख्यान उपभोग-परिभोग-विरमण कोटि सहित प्रत्याख्यान सामायिक नियन्त्रित प्रत्याख्यान देशावकाशिक साकार प्रत्याख्यान अतिथि-संविभाग अनाकार प्रत्याख्यान अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना परिमाणकृत प्रत्याख्यान निरवशेष प्रत्याख्यान संकेत प्रत्याख्यान अध्वा प्रत्याख्यान साधना के क्षेत्र में मूल-उत्तरगुण की व्यवस्था है। साधना के लिये जिनकी अनिवार्यता है, वे मूल गुण हैं। साधना-विकास के जो ऐच्छिक प्रयोग किये जाते हैं. वे उत्तरगुण हैं। भगवती भाष्य के द्वितीय खण्डानुसार- साधु के लिये मूल गुण पांच, उत्तर गुण दस हैं। श्रावक के लिये मूल गुण पांच, उत्तर गुण सात हैं। दिगम्बर परम्परा में मूल गुण का वर्गीकरण भिन्न है। वहां मूल गुण अट्ठाईस माने गये हैं- 5 महाव्रत, 5 समितियां, 5 इन्द्रिय-निरोध, छ: आवश्यक, लोच, अचेलत्व, अस्नान, क्षिति-शयन, अदन्त-घर्षण (दंतोन न करना), स्थिति-भोजन, (खड़े-खड़े भोजन करना), एकभक्त (दिन में एक बार भोजन करना)।131 मूल गुणों की संख्या का विकास किस आधार पर किया गया, यह अन्वेषणीय है। दिगम्बर आम्नाय में श्रावक के लिये भी मूल गुण आठ बतलाये हैं- 5 अणुव्रत के साथ मद्य, मांस और मधु का वर्जन132 (क) आचार्य महाप्रज्ञ के अभिमत से यह उत्तर कालीन विकास है। मूल गुण पांच अणुव्रत ही होने चाहिये।132(ख) स्थानांग में मुनि के लिये दस-प्रत्याख्यानों का उल्लेख है।133 वे भी संभवतः उत्तर गुण प्रत्याख्यान ही प्रतीत होते है। वे हैं__ (1) अनागत प्रत्याख्यान- भविष्य में करणीय तप को पहले करना। (2) अतिक्रांत प्रत्याख्यान- वर्तमान में करणीय तप नहीं होने से भविष्य में करना। क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप 77
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy