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________________ (1) स्वहस्त पारितापनिकी - मनुष्य स्वयं अपने हाथ से स्वयं को पीड़ित करता है, दूसरों को पीड़ित करता है अथवा दोनों को पीड़ित करता है, वह स्वहस्त पारितापनिकी क्रिया है। सिद्धसेनगणी के अभिमत से स्त्री- पुत्रादि स्वजन के वियोगजनित शोक से संतप्त होकर सिर पीटना आदि स्वहस्त परितापनिकी है। इससे अशुभ कर्म का बंध होता अपने सामर्थ्य के अनुसार तपस्यादि करना शरीर को परिताप देना नहीं है। परिताप की अनुभूति हो, वहां तपस्या का स्वरूप बदल जाता है। (2) परहस्त पारितापनिकी- दूसरे के हाथ से स्वयं को, किसी दूसरे को या दोनों को पीड़ा पहुंचाना परहस्त पारितापनिकी क्रिया है । 5. प्राणातिपातिकी क्रिया (Murderous activity) प्राण का वियोजन करना प्राणातिपातिकी क्रिया है। जीव के सामान्य से सामान्य कष्ट पहुंचाने से लेकर प्राण- - वियोजन करने तक की सभी क्रियाओं के निमित्त प्राणातिपातिकी क्रिया होती है। प्राण का अतिपात स्वयं करें या दूसरों से करवाये, दोनों प्राणातिपात है। प्राणातिपात के दो रूप हैं- 1. कायिकी आदि क्रिया-पंचक। 2. अठारह पाप-स्थान में। इस पंचक में प्राणातिपात का तात्पर्य प्राणवियोजन से है । पाप-स्थान रूप प्राणातिपात में पांच इन्द्रिय, तीन बल, उच्छ्वास - नि:श्वास तथा आयुष्य इन दस प्राणों में से कोई एक, अनेक या सबका वियोग करना प्राणातिपात है। दुःख देना, संक्लेश पैदा करना, वध करना प्राणातिपात है। पारिताप और प्राणातिपात दोनों का सम्बन्ध जीव से है। हिंसा का सम्बन्ध जीव- अजीव दोनों से है। 73 (ग) प्राद्वेषिकी क्रिया जीव- अजीव दोनों से सम्बन्धित हैं। द्वेष अजीव पर भी हो सकता है किन्तु प्राणातिपात और पारिताप अजीव के नहीं होता । प्राणातिपात का विषय षड्-जीवनिकाय है। प्राणातिपात की पृष्ठभूमि में प्रादोषिकी क्रिया है । कुछ लोगों की अवधारणा में अनशन भी आत्महत्या है, किन्तु यह समीचीन नहीं है। अनशन करने का उद्देश्य आत्महत्या नहीं, समाधि की साधना है। साधना का उपसंहार प्राण- वियोजन के रूप में होता है, किन्तु यह उसका मूल लक्ष्य नहीं है। वस्तुत: जिसके पीछे प्रादोषिकी क्रिया जुड़ी हुई हो, आत्म-हत्या उसे कहा जाता है। आवश्यक सूत्र के इरियावहियं सुतं में हिंसा की क्रियाओं का व्यवस्थित वर्णन है 52 अहिंसा की सूक्ष्म व्याख्या: क्रिया
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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