SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (अ) सम्मान संपादित करने के लिये हिंसात्मक प्रवृत्ति करता है। (ब) जो सम्मान नहीं करता, उसे लक्षित कर असम्मानित व्यक्ति हिंसात्मक प्रवृत्ति करता है। जैसे- प्रजा अपने राजा का वध-बंधन, सर्वस्व-अपहरण आदि करता है। ये सभी हिंसात्मक क्रियाएं हैं। पूजन-जैसे सम्मान के लिये हिंसा की जाती है उसी तरह पूजा के लिये भी। मानन और पूजन शब्द में अन्तर है। अभ्युत्थान आदि करना मानन तथा अर्चना करना, तिलक लगाना आदि पूजन हैं। जाति-मरण-जाति के दो अर्थ है-जाति समुदाय। और जाति जन्म। सदृश्यता के आधार पर बनने वाले वर्ग को जाति कहा जाता है किन्तु यहां जन्म अर्थ ही प्रासंगिक है, मरण का अर्थ है- मृत्यु। जन्म-मरण के निमित्त से होने वाला कर्म समारंभ प्रत्यक्ष है। मोचन- इसका अर्थ है- मुक्त या स्वतंत्रता। व्यक्ति बंधन से मुक्त होने के लिए कर्म - समारंभ करता है। हिंसावादी लोग इस दिशा में तत्पर है। चूर्णिकार ने 'भोयणाए' के स्थान पर 'मोयणाए' पाठ स्वीकार किया है। जो प्रस्तुत प्रसंग में अधिक न्याय संगत लगता है। मनुष्य भोजन के लिये कृषि आदि कर्मों में प्रवृत्त होते है। मनोविज्ञान के आधार पर आहार की गवेषणा मौलिक मनोवृत्ति हैं। दुखःप्रतिकार- इस प्रकार प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों के निवारण के हेतु नाना प्रकार से कर्म-समारंभ करता है। यह प्रवृत्ति का महान् स्रोत है। आचारांग में हिंसा के जनक उपर्युक्त प्रेरक-तत्वों की विशद संकलना है। कई चर्म, मांस, रक्त, हृदय, दांत, नख, आंख, अस्थि-मज्जा आदि के अनेक प्रयोजनों से हिंसा करते हैं। कई लोग बिना प्रयोजन भी हिंसा में प्रवृत्त होते है।46 कृषि, बावड़ी, कुआ, सरोवर, तालाब, भित्ति, स्तूप वेदिका, प्रसाद, भवन, घर, शयन, दुकान, भूमिगृह, देवालय, प्रतिमा चित्रशाला, मण्डप, घट आदि विविध कारणों से प्रेरित हो पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं।47 कई रस लोलुप मधु के लिए मधु - मक्खियों की, शारीरिक दुविधा मिटाने खटमल, मच्छर, रेशमी वस्त्र के लिये कीड़ों की घात करते हैं।48 कई व्यक्ति धान्य पकाने के लिये, अन्य से पकवाने के लिये,दीपक जलाने और बुझाने के लिये अग्नि की हिंसा करते हैं।49 क्रिया के प्रकार और उसका आचारशास्त्रीय स्वरूप
SR No.032421
Book TitleAhimsa ki Sukshma Vyakhya Kriya ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaveshnashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy