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________________ वैज्ञानिक दृष्टि से कायोत्सर्ग की फलश्रुतियां • अल्फा तरंगों का निर्माण रासायनिक परिवर्तन तनाव विसर्जन चौबीस तीर्थंकर की उत्कीर्तना के प्रमुख तीन प्रयोजन हैं१. दर्शन विशुद्धि २. बोधिलाभ ३. कर्मक्षय दर्शन विशुद्धि के द्वारा आदमी कल्याण के पथ को प्रशस्त कर सकता है और अपनी मंजिल को प्राप्त कर सकता है।" मूर्च्छा को कम करने और दर्शन की विशुद्धि का एक सरल उपाय है - कायोत्सर्ग । उसमें लोगस्स का कायोत्सर्ग भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि अर्हत् स्तुति में तन्मय होने से कर्म चेतना कमजोर होने लगती है । यदि कर्म चेतना कमजोर होती जाये और ज्ञान चेतना विकसित होती जाये तो इस साधना से एक दिन चैतन्यमय और ज्ञानमय अस्तित्व का साक्षात्कार संभव हो पायेगा । आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने अध्यात्म विद्या में लिखा है- ध्यान के द्वारा ऐसी ऊर्जा पैदा करें जिससे तीन तत्त्व उपलब्ध हो सकें । १. राग-द्वेष को कम कर सके । २. ग्रहों के विकिरण एवं कर्म के रस विपाक के प्रभाव को मंद कर सके । ३. यदि ग्रहों के विकिरण एवं कर्म रसायन का प्रभाव मंद न हो पाये, तो उसे झेलने की क्षमता को जगा सके । ४५ उपरोक्त तीन बिंदुओं का आत्मविश्लेषण यदि पकड़ में आ जाये तो ये प्रेक्षा ध्यान एवं नई चेतना को जगाने वाले प्रयोग सिद्ध होंगे। योग साधना के क्षेत्र में मंत्र का जप समरसीभाव अथवा समाधि के लिए किया जाता है इसलिए इस प्रक्रिया में सकलीकरण का मुख्य उद्देश्य हो जाता है - शरीर को विशिष्ट अर्हताओं की अभिव्यक्ति के योग्य बनाना । सकलीकरण की क्रिया में बाह्य शुद्धि, आन्तरिक एकाग्रता तथा न्यास - इन सबका समाहार होता है । ध्याता ध्येय के स्वरूप में तन्मय होकर ही तद्रूप बन सकता है। शरीर की निर्मलता और शून्यता ( कायोत्सर्ग की मुद्रा ) में गये बिना कोई भी साधना करने वाला व्यक्ति गुण संक्रमण का पात्र नहीं बन सकता, ध्येय की विशेषता का अपने में अवतरण नहीं कर सकता । अतः कायोत्सर्ग को साधना की आधार भूमि माना है 1 लोगस्स और कायोत्सर्ग / ६१ गया
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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