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________________ ३. सुखदःखतितिक्षा-कायोत्सर्ग से सुखदुःख को सहन करने की अपूर्व क्षमता विकसित होती है क्योंकि कायोत्सर्ग में बाहर व भीतर जो कुछ भी हो रहा है, उन सबको सहन करना होता है। सर्दी, गर्मी, आंधी, तूफान पीड़ा या किसी वस्तु का स्पर्श-इन सबको सहन करना कायोत्सर्ग है। अतएव सुख-दुःख को समभाव से सहन करने का प्रयोजन है-कायोत्सर्ग ४. अनुप्रेक्षा-कायोत्सर्ग में अवस्थित व्यक्ति अनुप्रेक्षा या भावना का स्थिरता पूर्वक अभ्यास करता है। ५. शुभ ध्यान-कायोत्सर्ग से शुभ ध्यान का सहज अभ्यास हो जाता है। कायोत्सर्ग व्यक्ति को निर्भार और प्रशस्त ध्यान में उपयुक्त करता है।२३ प्रशस्त ध्यान के दो प्रकार हैं१. धर्म ध्यान २. शुक्ल ध्यान शुक्ल शब्द 'शुच-शौचे' धातु से 'रन्' एवं 'र' का लोप करने पर बनता है। जो श्वेत अनाविलता, पवित्रता, धवलता आदि का वाचक है। जो सभी कर्मों का शोधन कर दे, वह शुक्ल है-“शोधयति अष्ट प्रकारं कर्ममलं शुचं वा कलमयतीति शुक्लम्।४ अत्यन्त निर्मल और निष्प्रकंप दशा को शुक्ल कहते हैं-सु निर्मलं निष्प्रकंपंच अर्थात् इस शुक्लत्त्व दशा को प्राप्त कर साधक दिव्य, भव्य, नव्य तथा कृतकृत्य हो जाता है। कायोत्सर्ग के प्रकार अष्ट प्रकार के कर्मों को नष्ट करने के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है, उसे कर्म व्युत्सर्ग कहते हैं। कायोत्सर्ग के जो विविध प्रकार बतलाये गये है। उनमें शारीरिक दृष्टि से और विचार की दृष्टि से भेद किये गये हैं। प्रयोजन की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो प्रकार हैं१. चेष्टा कायोत्सर्ग २. अभिभव कायोत्सर्ग १. चेष्टा कायोत्सर्ग-दोष विशुद्धि के लिए किया जाता है। २. अभिभव कायोत्सर्ग-यह कायोत्सर्ग दो स्थितियों में किया जाता है। प्रथम दीर्घकाल तक आत्मचिंतन के लिए या आत्म विशुद्धि के लिए मन को एकाग्र कर कायोत्सर्ग करना और दूसरा संकट आने पर कायोत्सर्ग करना जैसे विप्लव, अग्निकांड, दुर्भिक्ष आदि। ८० / लोगस्स-एक साधना-२
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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