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________________ राग-द्वेष रहित करुणामय महोत्तम पुरुष ही संसार मे पूज्य पद के योग्य है। ऐसे पुरुषोत्तम का वंदन, कीर्तन मनुष्य को अवश्य ही गुणानुरागी बनाकर योग्यता तक पहुँचा सकता है। जैन परम्परा में वीतराग के लिए जिन या जिनेन्द्र शब्द का भी प्रयोग होता है । लक्ष्य को सामने रखने की दृष्टि से एक प्रतीकात्मक शब्द है - 'जय जिनेन्द्र' । जिनेन्द्र अर्थात् वीतराग का जयकार करके व्यक्ति अपनी आस्था को पुष्ट करता है और यह सूचना भी देता है कि वह जैन संस्कृति में विश्वास रखता है । लोगस्स सूत्र में २४ तीर्थंकरों की स्तुति के अलावा २० विहरमान एवं अनंत सिद्ध-आत्माओं को वंदन करते हुए उनका आलंबन लेकर स्वयं प्रेरणा प्राप्त कर सिद्ध बनने की कामना व्यक्त की गई है। 'चउविसंपि' में 'अपि' शब्द बीस विहरमानों का प्रतीक माना गया है, ऐसा श्रुतानुश्रुत है । यह भी अपने-आप में एक रहस्य है । महाविदेह क्षेत्र और लोगस्स गणित की दृष्टि से हिसाब लगाएं तो महाविदेह क्षेत्र में बीस विरहमान (तीर्थंकर) तो रहते ही हैं और उनमें से प्रत्येक त्रियासी (८३) लाख पूर्व की आयु तक गृहवास में और एक लाख पूर्व संयमावस्था में बिताते हैं । जब बीस विरहमान निर्वाण को प्राप्त होते हैं तो नए बीस विहरमान एक साथ अपने-अपने क्षेत्रों में विहरमान पद पर सुशोभित हो जाते हैं अतः स्पष्ट है कि एक समय में गृहवास में बीस विहरमान एक लाख पूर्व की आयु के, बीस ही दो लाख पूर्व की आयु के और इसी क्रम में त्रियासी लाख पूर्व तक गिन लेना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि एक समय में गृहवास में जघन्य ८३x२०=१६, ६० तथा विहरमान पद पर आसीन बीस विहरमान कुल १,६८० विहरमान होते हैं । इतने विहरमान (द्रव्य और भाव ) एक समय में होने पर भी ये कभी आपस में मिलते नहीं हैं। अनादि काल से यह क्रम चल रहा है और अनंत काल तक यही क्रम चलता रहेगा । १५ महाविदेह क्षेत्र में बीस विहरमान शाश्वत होते हैं, इस दृष्टि से कई बार यह जिज्ञासा की जाती है कि क्या महाविदेह क्षेत्र में भी लोगस्स सूत्र हैं ? वहाँ चतुर्विंशतिस्तव नहीं है किंतु उत्कीर्तन सूत्र होना संभव है । क्योंकि आवश्यक सूत्र वहां भी होता है । वस्तुतः आवश्यक सूत्र - प्रेरित आवश्यक क्रियाएं ही मोक्ष मार्ग हैं। भगवान श्री ऋषभदेव ने वज्रनाभ के भव में (महाविदेह में ) बीस बोल की आराधना करके तीर्थंकर नाम गोत्र का उपार्जन किया। बीस बोलों में एक बोल आवश्यक आराधना भी है । वहाँ दूसरे आवश्यक का क्या स्वरूप है, ग्रंथों में यह कहीं देखा नहीं । लोगस्स एक सर्वे / ६६
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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