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________________ • सकल जैन समाज में इसका अभिमंडित होना। जैन परम्परा में ६३ श्लाका पुरुष माने गये हैं। उनमें चौबीस तीर्थंकरों का भी समावेश है। श्लाका तीक्ष्ण होने के साथ-साथ स्वच्छ, निर्मल और उज्ज्वल भी होती है। इस कारण उसका लाक्षणिक प्रयोग या लक्ष्यार्थ उत्तम, श्रेष्ठ या विशिष्ट पदार्थों और पुरुषों के लिए हुआ है। तीर्थंकर त्रिषष्ठी श्लाका पुरुषों में सर्वोत्कृष्ट उत्तम पुरुष होते हैं। वे मोक्षगामी, अनुत्तर योगी और धर्मतीर्थ के संस्थापक होते हैं अतः उनकी स्तुति कृतज्ञता के भाव से करनी उचित ही है। सामान्यतः स्तुति के दो प्रकार हैं१. अर्थवाद २. यथार्थवाद अर्थवाद में यथार्थवाद के साथ अतिशय का भाव आ जाता है, विवेचन में अतिशयोक्ति हो जाती है पर उसका उद्देश्य अन्यथा नहीं होता। यथार्थवाद में जो जैसा है वैसा ही भाव उसमें झलकता है। उसमें कृत्रिमता नहीं होती। श्रुत केवली आचार्य भद्रबाहु ने लोगस्स स्तव में यथार्थवाद का निरूपण किया है। मंत्रात्मकता के साथ यथार्थवाद का निरूपण, यह इस सूत्र की महत्ता का सशक्त आधार है। निश्चय ही तीर्थंकरो की पूजा, अर्चना, गुणोत्कीर्तन व पर्युपासना महान निर्जरा का हेतु है तथा स्वयं को उस आलोक से आलोकित करने का उपक्रम है। तीर्थंकर हमारे आदर्श हैं। हम उनके गुणों का उत्कीर्तन कर उनके गुणों को स्वयं में संक्रान्त करने का प्रयत्न करते हैं। लोगस्स प्रमोद भावना के उत्कर्ष का ही सूत्र है। गुणियों के गुणों के प्रति प्रसन्न होना प्रमोद भावना है। तीर्थंकरों से उत्कृष्ट गुणधारी मनुष्य लोक में तो क्या तीन लोक में भी नहीं है। अतः उनके गुणों के स्मरण से अर्थात् लोगस्स-स्तव के माध्यम से प्रमोद भावना के उत्कर्ष को साधा जा सकता है। लोगस्स का वैशिष्ट्य इसमें 'वंदे' और 'वंदामि' शब्द पांच बार प्रयुक्त हुआ है, जिसमें “आशीर्वस्तु निर्देश-नमस्क्रिया" के रूप में गागर में सागर की भांति आर्य संस्कृति का निचोड़ ही भर दिया गया है। वस्तुतः नमन और स्तवन अन्योन्याश्रित है। जहाँ नमन होता है, वहां स्तवन अपने आप ही हो जाता है। नमन आत्मनिवेदन रूप भक्ति का एक प्रकार है। नमन द्वारा भक्त का परमात्मा से तादात्म्य होता है। जहाँ सीमा का विसर्जन होता है, वहाँ उसी का दर्शन होता ही है। लोगस्स में 'जिणे' (जिन) शब्द ही सम्पूर्ण गुणों का बोधक है। वास्तव में ६८ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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