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________________ शब्द के प्रमुख रूप से दो अर्थ विमर्शनीय हैं - १. प्रवचन २. साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना । यहाँ एक जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है कि तीर्थंकर को वीतरागता के कारण सब कुछ प्राप्त है फिर प्रवचन / धर्म देशना का क्या प्रयोजन ? कर्म शास्त्रीय दृष्टि से कहा जा सकता है कि तीर्थंकर कृतार्थ होने पर भी तीर्थंकर नाम कर्म के उदय को वेदने के लिए धर्मदेशना देते हैं । धर्मदेशना देने से तीर्थंकर प्रकृति की निर्जरा होती है । दूसरी दृष्टि से इस जिज्ञासा का समाधान प्रश्न व्याकरण सूत्र में भी विवर्णित है—“सव्वजगजीवरक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं" संसार के सब प्राणियों की रक्षा अर्थात् पतन से बचाने के लिए तीर्थंकर प्रवचन करते हैं । सहसंबुद्धाणं- (स्वयंसंबुद्ध) किसी निमित्त या गुरु के प्रतिबोध के बिना ही स्वयं बोधि प्राप्त करने के कारण तीर्थंकर स्वयंसंबुद्ध कहलाते हैं 1 1 पुरिसोत्तमाणं - ( पुरुषोत्तम ) अर्हतों के तनु रत्न पर १००८ दिव्य उत्तम लक्षण होते हैं। उनका वपु सर्व रोगों से विमुक्त, देदीप्यमान, सुगंधित व अनुपम होता है। उनके सौन्दर्य की सानी ओर कौन कर सकता है? उनका आन्तरिक सौन्दर्य शांति, पवित्रता, निर्मलता, वीतरागता और विशुद्ध लेश्या से परिपूर्ण होता तो बाह्य सौन्दर्य भी अनुपमेय और अकथनीय है । जैसा कि कहा गया है - ' तेषां च देहोऽद्भूतरूयगंध' उनका रूप और शरीर की सुगंध अद्भूत होती है। नियुक्तिकार कहते हैं - सब देवता अपने सौन्दर्य को इकट्ठा कर अंगूठे का निर्माण करें, फिर उसे तीर्थंकर के अंगूठे के पास लाएं तो ऐसा लगेगा जैसे शीतल जल के समक्ष कोई अंगारा लाकर रख दिया गया हो। इस प्रकार अद्वितीय, अनुपम और सर्वोत्तम होने के कारण वे पुरुषोत्तम कहलाते हैं । प्रथम श्रुत स्कन्ध के 'वीरस्तुति' नामक षष्ठ अध्ययन में श्रमण भगवान महावीर की विविध उपमाओं से स्तुति की गई है । यह महावीर की सबसे प्राचीन स्तुति है । इसमें उनके गुणों का हृदयग्राही वर्णन है। वहां भगवान महावीर को हाथियों में ऐरावत, मृगों में सिंह, नदियों में गंगा और पक्षियों में गरुड़ की उपमा देते हुए लोक में सर्वोत्तम बताया गया है । " आचार्य मानतुंग ने आदिनाथ भगवान की स्तुति में यही भावना अभिव्यक्त की है — १. साधुजन आपको परम पुरुष मानते हैं । राग-द्वेष रूपी मल से रहित होने से आपको निर्मल मानते हैं । मोह अंधकार को आप नष्ट करते हो, इस कारण आपको सूर्य के समान मानते हैं । २. ३. शक्र स्तुति : स्वरूप मीमांसा / ३७
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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