SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. सयोगी केवली-जो तेरहवें गुणस्थान में होते हैं और जब तक विहार एवं उपदेश आदि क्रियाएं करते हैं तब तक सयोगी केवली अरिहंत कहलाते हैं। __ अयोगी केवली-जो चौदहवें गुणस्थान में होते हैं, आयु के अंतिम क्षणों में उपदेश विहार आदि क्रियाओं का त्याग कर योग निरोध करते हैं, वे अयोगी केवली अरिहंत कहलाते हैं। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है अरिहंत चरम शरीरी होते हैं। इसी जन्म में वे सम्पूर्ण कर्मों को क्षीण कर सिद्धत्व को प्राप्त हो जाते हैं। जैन परम्परा में ये अरिहंत भगवान ही देवाधिदेव एवं धर्मदव के रूप में आराध्य एवं उपास्य होते हैं। उनकी आन्तरिक क्षमताएं, अर्हताएं पूर्णतः जागृत होती हैं, इसलिए वे अरिहंत या अर्हत कहलाते हैं। अतः लोगस्स में प्रयुक्त अरहंते शब्द अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। उनकी अपनी अलग पहचान है, अलग विशेषताएं हैं। जैन धर्म में जो चार शरण बतलाएं गये हैं, उनमें अरिहंत सबसे पहले शरणदाता हैं चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरहंते सरणं पवजामि सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवजामि केवली पण्णतं धम्म सरणं पवज्जामि ॥ इस प्रकार तीर्थंकर अरिहंत अनुत्तर, पराक्रमी तथा अनंतज्ञानी होते हैं। वे तीर्थंकर सिद्ध गति को प्राप्त तथा सिद्ध पद के उपदेशक हैं। वे महान यशस्वी, महामुनि, अचिन्त्य शक्ति के धनी, इन्द्रों तथा चक्रवर्तियों से पूजित होते हैं। लोगस्स में उन अर्हत् तीर्थंकर भगवंतों का कीर्तन किया गया है। ४. केवली केवलज्ञान और केवलदर्शन ही ज्ञान-दर्शन की परिपूर्णता है। इसका परिचय देते हुए आगमों में बताया गया है कि द्रव्य से केवलज्ञानी लोकालोक के समस्त द्रव्यों को जानते-देखते हैं, क्षेत्र से समस्त क्षेत्र को, काल से भूत, भविष्य और वर्तमान के तीनों काल-समस्त काल और भाव से विश्व के समस्त भावों को जानते और देखते हैं। वह केवलज्ञान सम्पूर्ण, प्रतिपूर्ण, अव्याहत, आवरण रहित, अनंत और प्रधान होता है। इससे वे सर्वज्ञ और समस्त भावों के प्रत्यक्षदर्शी होते हैं। वे समस्त लोक के पर्याय जानते-देखते हैं। गति, आगति, स्थिति, च्यवन, उपपात, खाना, पीना, करना, कराना, प्रकट, गुप्त आदि समस्त भावों को जानते देखते हैं।२५ केवलज्ञानी का ज्ञान आत्मप्रत्यक्ष होता है। वे पूर्व आदि सभी दिशाओं में १५२ / लोगस्स-एक साधना-१
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy