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________________ कुछ अरिहंत गृहस्थ जीवन में रहते हुए विवाह करते हैं और कुछ राज्य व्यवस्था का संचालन भी करते हैं। वे साधारण मनुष्य होकर भी कुछ बातों में असाधारण होते हैं। अपनी असाधारण उत्कृष्ट विशेषताओं के कारण उनका जीवन व्यवहार परिवार के बालकों से विलक्षण होता है। वे दीक्षा लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति तक साधना करते हैं। इस प्रकार अरिहंत असाधारण वीर्य और शक्ति के प्रभाव से वस्तु स्वरूप के ज्ञाता होते हैं, उनकी वाणी में असाधारण बल होता है। केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व वे द्रव्य अर्हत् और केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद भाव अर्हत् कहलाते हैं। भाव अरिहंत ही नमस्कार महामंत्र के प्रथम अरिहंत पद पर प्रतिष्ठित और अभिमंडित हो नमस्करणीय होते हैं। उपरोक्त सारे संदर्भ का जब मैं लोगस्स के प्रथम पद्य में अन्वेषण करती हूं तो कुछ जिज्ञासाएं शोध के लिए प्रेरित करती हैं। क्या अरिहंत भगवान को तीर्थंकर कह सकते हैं, यदि नहीं तो दोनों में क्या अन्तर है? अरहंतों के कितने प्रकार है? इत्यादि। • क्या अरिहंत भगवान को तीर्थंकर कह सकते हैं? नहीं, अरिहंत भगवान को तीर्थंकर नहीं कह सकते लेकिन तीर्थंकर भगवान को अरिहंत भगवान कह सकते हैं इसलिए अरिहंतों को नमस्कार करने से तीर्थंकरों को भी नमस्कार हो जाता है। सामान्यतः शब्दों के अर्थ दो प्रकार के होते हैं१. निरुक्त अर्थ २. व्युत्पत्ति अर्थ शब्द में आए हुए अक्षरों का आधार लेकर जो अर्थ करते हैं वह निरुक्तार्थ हैं जैसे कि श्रावक शब्द का अर्थ-श्र-श्रद्धा, व-विवेक, क-क्रिया-करना। ये तीन गुण जिसमें हों वह श्रावक है। इस तरह अंतरंग शत्रुओं का नाश करने वाला (अरि-दुश्मन, हंत-हनने वाला) अरिहंत शब्द का ऐसा जो अर्थ है, वह निरुक्तार्थ है और संस्कृत के धातु तथा प्रत्यय से कारक के अनुसार जो अर्थ होता है वह व्युत्पत्ति अर्थ कहलाता है, जैसे शृणोतीति श्रावकः-जो गुरु का वचन सुनता है वह श्रावक है वैसे ही अरिहंत शब्द में मूल अर्ह धातु है, योग्य, लायक ऐसा उसका अर्थ है। जगत् में सामान्य मनुष्य में जो घटित न हो ऐसे ३४ अतिशयों के योग्य है वे अर्हन्त अर्थात् अरिहन्त कहलाते हैं। यह व्युत्पत्ति अर्थ है। __पहले निरुक्त अर्थ के अनुसार तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव आदि और तीर्थंकर हुए बिना केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में जाने वाले सामान्य केवल ज्ञानी-इस तरह दोनों को अरिहंत कहा जाए, क्योंकि दोनों प्रकार के परमात्मा लोगस्स एक धर्मचक्र-२ / १४६
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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