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________________ १. बोधि लाभ २. दृष्टि लाभ ३. चारित्र लाभ ४. समाधि लाभ - - सुलभ बोधित्व आदि की प्राप्ति सम्यक्त्व ( रत्नत्रय) की प्राप्ति सामायिक यावत् यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति समभाव की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति ५. सिद्धि लाभ वेदों का प्रकाण्ड विद्वान, मर्मज्ञ इन्द्रभूति ब्राह्मण (गौतम) ज्ञान से अहं से भारी बनकर भगवान महावीर को अपनी शरण में लेने के लिए स्वयं को सर्वज्ञ मानता हुआ भगवान महावीर के समवसरण में पहुँचा पर घटित कुछ ओर ही हुआ। वह स्वयं सर्वज्ञ भगवान महावीर की शरण में चला गया। उनकी सर्वज्ञता के समक्ष नत मस्तक हो गया। भगवान महावीर ने उसे संबोध दिया और एक दिन वह स्वयं भी सर्वज्ञ बनने में सफल हो गया । इस प्रकार तीर्थंकर लोक में द्रव्य और भाव ( धर्म का उद्योत ) - दोनों प्रकार का उद्योत करते हैं। इस प्रथम पद्य की अन्तर्यात्रा लोक से प्रारंभ हो लोकान्त तक पहुँचाने में सक्षम है। इस दृष्टि से लोक के स्वरूप की मीमांसा और लोक भावना का चिंतन विशिष्ट महत्त्व एवं वरेण्य स्थान रखता है । लोक मीमांसा उन्नत जीवन एवं विकास का एक बहुत बड़ा रहस्य है - जिज्ञासा । गणधर गौतम ने भगवान महावीर से अनेक जिज्ञासाएं की। परिणाम स्वरूप छत्तीस हजार प्रश्नों का समाधान के रूप में भगवती सूत्र प्रकाश स्तंभ सदृश हमारा आधार स्तंभ है । विश्व व्यवस्था के भी सार्वभौम नियम होते हैं । जगत् की वस्तुओं की खोज कर आइंस्टीन जैसे व्यक्ति विश्वविख्यात बन गये । न्यूटन जैसे अन्वेषी जिज्ञासा बल से ही विश्व विश्रुत बन पाये थे । ढक्कन का उछलना-कूदना एक सामान्य रसोइये के लिए आश्चर्य की बात नहीं पर एक अन्वेषक ने उसके कूदने से वाष्प के नियम को खोजकर 'वॉयलर पद्धति' खोज ली और रेलगाड़ी चलाई। वृक्ष से फलों का गिरना एक कृषक के लिए सामान्य बात हो सकती है पर एक जिज्ञासु ने इस प्रक्रिया को देखकर गुरुत्वाकर्षण का नियम खोजकर न जाने कितनी सारी उपलब्धियां प्राप्त की थीं । यह निर्विवाद सिद्ध है कि सम्पूर्ण ऊँची खोजें चाहे वे भौतिक जगत् की हों चाहे धार्मिक जगत् की हों अथवा तात्विक जगत् की - ये सब खोजें जिज्ञासा से ही संभव हो सकी हैं । मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ ? कहाँ जाऊँगा? इत्यादि जिज्ञासाओं के समाधान हेतु साधक अन्तर्जगत् में प्रवेश करता है तब वह बाह्य जगत् की तरह अन्तर्जगत् के अनेकों रहस्यों को हस्तगत करने में सफल होता है । 'कोऽहं ' जिज्ञासा का योग-साधना की दृष्टि से चिंतन करने पर ज्ञात होता है कि जब प्राण लोगस्स एक धर्मचक्र - १ / १२६
SR No.032418
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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