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________________ श. १३ : उ. ४ : सू. ५४-६० भगवती सूत्र -सपर्यवसित है। अलोक की अपेक्षा सादि-अपर्यवसित है। वह रुचक-संस्थान वाली प्रज्ञप्त है। इसी प्रकार तमा-दिशा की वक्तव्यता। ५५. भंते ! लोक किसे कहा जाता है ? गौतम ! पांच अस्तिकाय हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय। यह पंचास्तिकाय जितने आकाश-खंड में व्याप्त है, वह लोक कहलाता है। ५६. भंते ! धर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है? गौतम! धर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों का आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मन-योग, वचन-योग, काय-योग-ये तथा इस प्रकार के जितने चल (गत्यात्मक) भाव हैं, धर्मास्तिकाय की सत्ता में उन सबका प्रवर्तन होता है। गति धर्मास्तिकाय का लक्षण है। ५७. भंते ! अधर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है? गौतम ! अधर्मास्तिकाय की सत्ता में जीवों की स्थिति, निषीदन, शयन, मन का एकत्वीभावकरण ये तथा इस प्रकार के जितने भी स्थिर (अगत्यात्मक) भाव हैं, अधर्मास्तिकाय की सत्ता में उन सबका प्रवर्तन होता है। स्थिति अधर्मास्तिकाय का लक्षण है। ५८. भंते ! आकाशास्तिकाय की सत्ता में जीवों और अजीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम! आकाशास्तिकाय जीव-द्रव्यों और अजीव-द्रव्यों का भाजन-भूत (आधारभूत) है। आकाश का एक प्रदेश एक परमाणु से भर जाता है, दो परमाणु से भी भर जाता है, उसमें सौ भी समा जाते हैं। वह सौ-करोड़ से भी भर जाता है, उसमें हजार-करोड़ भी समा जाते हैं। अवगाहना आकाशास्तिकाय का लक्षण है। ५९. भंते ! जीवास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है? गौतम ! जीवास्तिकाय की सत्ता में जीव अनंत आभिनिबोधिक-ज्ञान-पर्यव, अनंत श्रुत-ज्ञान-पर्यव, अनंत अवधि-ज्ञान-पर्यव, अनंत मनःपर्यव-ज्ञान-पर्यव, अनंत केवल-ज्ञान-पर्यव, अनंत मति-अज्ञान-पर्यव, अनंत श्रुत-अज्ञान-पर्यव, अनंत विभंग-ज्ञान-पर्यव, अनंत चक्षु-दर्शन-पर्यव, अनंत अचक्षु-दर्शन-पर्यव, अनंत अवधि-दर्शन-पर्यव और अनंत केवल-दर्शन-पर्यव के उपयोग को प्राप्त होता है। उपयोग जीव का लक्षण है। ६०. भंते ! पुद्गलास्तिकाय की सत्ता में जीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? गौतम ! पुद्गलास्तिकाय की सत्ता में जीव औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय, मन-योग, वचन-योग, काय-योग और आनापान के ग्रहण का प्रवर्तन करता है। ग्रहण पुद्गलास्तिकाय का लक्षण है। ५००
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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