SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र श. ३४ : उ. १ : सू. ३०-३२ (समवहत होकर) पूर्व दिशा के ही चरमान्त में उत्पन्न हुआ था (भ. ३४।२५) वैसे ही पूर्व दिशा के चरमान्त में समवहत हुआ था, (समवहत होकर) पश्चिम दिशा के चरमान्त में सभी जीवों को उत्पन्न करवाना चाहिए। ३१. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव लोक के पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) लोक के उत्तर दिशा के चरमान्त में अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह (कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है)? इसी प्रकार जैसे पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है (सवमहत होकर) दक्षिण दिशा के चरमान्त में उत्पन्न करवाया था वैसे ही पूर्व दिशा के चरमान्त में समवहत होता है, (सवमहत होकर) उत्तर दिशा के चरमान्त में उत्पन्न करवाना चाहिए। ३२. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव लोक के दक्षिण दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) लोक के दक्षिण दिशा के ही चरमान्त में अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं? इसी प्रकार जैसे पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर पूर्व दिशा के ही चरमान्त में उत्पन्न करवाना चाहिए, वैसे ही दक्षिण दिशा में समवहत होकर दक्षिण दिशा में ही उत्पन्न करवाना चाहिए, वैसे ही सम्पूर्ण रूप से बतलाना चाहिए यावत् 'सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक-जीव का सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक-जीव के रूप में (लोक के) दक्षिण चरमान्त' तक में उत्पन्न करवाना चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण में समवहत होकर पश्चिम के चरमान्त में उत्पन्न करवाना चाहिए, केवल इतना अन्तर है-दो समय वाली, तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से (उत्पन्न करवाना चाहिए), शेष उसी प्रकार बतलाना चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण में समवहत होकर उत्तर के चरमान्त में उत्पन्न करवाना चाहिए, जैसे स्वस्थान के विषय में बतलाया गया वैसे ही एक समय वाली, दो समय वाली, तीन समयवाली अथवा चार समय वाली विग्रह-गति से उत्पन्न करवाना चाहिए। (दक्षिण के चरमांत में मर कर, पूर्व चरमान्त में उत्पन्न होने वाले के लिए वैसे ही बतलाना चाहिए जैसा (दक्षिण के चरमांत में मरकर) पश्चिम के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले के विषय में बतलाया गया था, वैसे ही दो समय वाली, तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रह-गति से उत्पन्न करवाना चाहिए। (अब) पाश्चात्य चरमान्त में मरकर चारों दिशाओं में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में बताया जा रहा है-(जैसे पूर्व के चरमान्त में मरकर पूर्व के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में स्वस्थान में एक, दो, तीन, चार समय की विग्रह-गति (अन्तराल-गति) बतलाई गई थी वैसे ही यहां भी) पश्चिम के चरमान्त में (मारणान्तिक-समदघात से समवहत होते हैं). समवहत होकर पश्चिम के चरमान्त में ही उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में स्वस्थान में एक, दो, तीन और चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) बतलानी चाहिए। (पश्चिम के चरमान्त में मर कर) उत्तर के चरमान्त में उत्पन्न होने वाले जीवों की एक समय वाली विग्रह-गति ९१३
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy