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________________ श. ३४ : उ. १ : सू. २६-३० भगवती सूत्र जीवों के रूप में इस प्रकार अपर्याप्तक- और पर्याप्तक-बारह स्थानों में इसी क्रम से वक्तव्य हैं। सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक जीव इसी प्रकार से सम्पूर्ण रूप में बारह ही स्थानों में उत्पन्न करवाना चाहिए। इसी प्रकार इस गमक के द्वारा यावत् ‘सूक्ष्म-वनस्पति-कायिक-पर्याप्तक जीव का उत्पाद सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीवों' तक के रूप में बतलाना चाहिए। २७. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव लोक के पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त) लोक के दक्षिण दिशा के चरमान्त में अपर्यात-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है? गौतम! वह जीव दो समय वाली अथवा तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। २८. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है? गौतम! मैंने इस प्रकार सात श्रेणियां प्रज्ञप्त की हैं जैसे-ऋजुआयता यावत् अर्धचक्रवाला (भ. ३४।३)। एकतोवक्रा-श्रेणी के द्वारा उत्पन्न होता हुआ वह जीव दो समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। द्वितोवक्रा-श्रेणी के द्वारा उत्पन्न होता हुआ वह भव्य एक प्रतर में अनुश्रेणी के द्वारा अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त है, वह तीन समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है। जो भव्य विश्रेणी के द्वारा (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योग्यता प्राप्त है), वह चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) से उत्पन्न होता है। गौतम! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा है। इसी प्रकार इस गमक के द्वारा पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होकर दक्षिण दिशा के चरमान्त में उत्पन्न करवाना चाहिए यावत् 'सूक्ष्म-वनस्पति-कायिक-पर्याप्तक-जीव का सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-जीवों में उत्पाद करवाना चाहिए। सभी जीवों का विग्रह दो समय वाला, तीन समय वाला अथवा चार समय वाला बतलाना चाहिए। २९. भन्ते! अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव लोक के पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर जो भव्य (अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने की योगता प्राप्त) लोक के पश्चिम दिशा के चरमान्त में अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-जीव के रूप में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। गौतम! वह जीव एक समय वाली अथवा दो समय वाली अथवा तीन समय वाली अथवा चार समय वाली विग्रह-गति (अन्तराल-गति) के द्वारा उत्पन्न होता है। ३०. यह किस अपेक्षा से? इसी प्रकार जैसे पूर्व दिशा के चरमान्त में मारणान्तिक-समुद्घात से समवहत होता है, ९१२
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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