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________________ भगवती सूत्र श. २५ : उ. २ : सू. २०-२६ गौतम! नैरयिक अजीव-द्रव्यों का पर्यादान करते हैं, पर्यादान कर उन्हें वैक्रिय-, तैजस-, -कार्मण-(शरीर), श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय, मनो-योग, वचन-योग, काय-योग और आनापान के रूप में निष्पन्न करते हैं। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-नैरयिक अजीव-द्रव्यों का परिभोग करते हैं, अजीव-द्रव्य नैरयिकों का परिभोग नहीं करते। इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक। केवल इतना विशेष है-शरीर, इन्द्रिय और योग जिसके जितने होते हैं, वे यथोचित वक्तव्य हैं। अवगाह-पद २१. भन्ते! लोक असंख्येय-प्रदेशात्मक है और द्रव्य अनन्त हैं? क्या इस असंख्येय-प्रदेशात्मक सान्त लोक-आकाश में अनंत द्रव्यों का समावेश भक्तव्य हैं-क्या सान्त में अनंत का समावेश विकल्पनीय है? हां, गौतम! लोक असंख्येय-प्रदेशात्मक है और द्रव्य अनन्त हैं। फिर भी इस सान्त लोक-आकाश में अनंत द्रव्यों का समावेश भक्तव्य-सान्त में अनंत का समावेश विकल्पनीय है। पुद्गलों का चयादि-पद २२. भन्ते! लोक के एक आकाश-प्रदेश में कितनी दिशाओं से पुद्गलों का चय होता है? गौतम! व्याघात न हो तो छहों दिशाओं से और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन दिशाओं, कदाचित् चार दिशाओं और कदाचित् पांच दिशाओं से पुद्गलों का चय होता है। २३. भन्ते! लोक के एक आकाश-प्रदेश में कितनी दिशाओं से पुद्गल पृथक् होते हैं? पूर्ववत्। इसी प्रकार उपचय और इसी प्रकार अपचय भी पूर्ववत् वक्तव्य है। पुद्गल-ग्रहण-पद २४. भन्ते! जीव जिन द्रव्यों पुद्गलों को औदारिक-शरीर के रूप में ग्रहण करता है क्या स्थित-द्रव्यों को ग्रहण करता है? अथवा अस्थित-द्रव्यों को? गौतम! स्थित-द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, अस्थित-द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। २५. भन्ते! क्या उन्हें द्रव्यतः ग्रहण करता है? क्षेत्रतः ग्रहण करता है? कालतः ग्रहण करता है? भावतः ग्रहण करता है? गौतम! द्रव्यतः भी ग्रहण करता है, क्षेत्रतः भी ग्रहण करता है, कालतः भी ग्रहण करता है, भावतः भी ग्रहण करता है। उन्हें द्रव्यतः अनन्त-प्रदेशी द्रव्यों के रूप में, क्षेत्रतः असंख्येय-प्रदेशावगाढ द्रव्यों के रूप में ग्रहण करता है-इस प्रकार पण्णवणा के प्रथम आहार-उद्देशक (पण्णवणा, २८/५-१९) की भांति वक्तव्यता यावत् निर्व्याघात स्थिति में छहों दिशाओं से और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन दिशाओं, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से ग्रहण करता है। २६. भन्ते! जीव जिन द्रव्यों को वैक्रिय-शरीर के रूप में ग्रहण करता है तो क्या स्थित-द्रव्यों को ग्रहण करता है? अथवा अस्थित-द्रव्यों को ग्रहण करता है? पूर्ववत्। केवल इतना विशेष है-नियमतः छहों दिशाओं से। इसी प्रकार आहारक-शरीर की वक्तव्यता। ७८५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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