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________________ भगवती सूत्र श. २४ : उ. १२-१५ : सू. २१८-२२६ ज्योतिष्क-देव (भ. २४/२१५) की भांति वक्तव्य है। इतना विशेष है-स्थिति और अनुबन्ध जघन्यतः एक पल्योपम, उत्कृष्टतः दो सागरोपम। काल की अपेक्षा जघन्यतः अन्तर्मुहूर्तअधिक-एक-पल्योपम, उत्कृष्टतः बाईस-हजार-वर्ष-अधिक-दो-सागरोपम-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। इसी प्रकार शेष आठ गमक वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है-स्थिति और काल की अपेक्षा जाननी चाहिए। पृथ्वीकायिक-जीवों में ईशानवासी-देवों का उपपात-आदि २१९. भन्ते! ईशानवासी-देव, जो पृथ्वीकायिक-जीवों में उत्पन्न होने योग्य है? (......पृच्छा) इसी प्रकार ईशानवासी-देव के नौ गमक वक्तव्य हैं, केवल इतना विशेष है-स्थिति और अनुबन्ध जघन्यतः कुछ-अधिक-एक-पल्योपम, उत्कृष्टतः कुछ-अधिक-दो-सागरोपम। शेष पूर्ववत्। २२०. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहरण करने लगे। (भ. १/५१) तेरहवां उद्देशक सैंतीसवां आलापक : अप्कायिक-जीवों में पृथ्वीकायिक-जीवों का उपपात-आदि २२१. भन्ते! अप्कायिक-जीव कहां से उत्पन्न होते हैं? इसी प्रकार पृथ्वीकायिक-जीवों के उद्देशक की भांति वक्तव्यता यावत्-(भ. २४/१६३-१६५) २२२. भन्ते! पृथ्वीकायिक-जीव जो अप्कायिक-जीवों में उत्पन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने काल की स्थिति वाले अप्कायिक-जीवों में उत्पन्न होता है? गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहर्त की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः सात-हजार-वर्ष की स्थिति वाले अप्कायिक-जीवों में उत्पन्न होता है। इस प्रकार पृथ्वीकायिक-जीवों के समान वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है-स्थिति और कायसंवेध ज्ञातव्य है। शेष पूर्ववत्। २२३. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है। ___ चौदहवां उद्देशक अड़तीसवां आलापक : तेजस्कायिक-जीवों में जीवों का उपपात-आदि २२४. भन्ते! तेजस्कायिक-जीव कहां से उत्पन्न होते हैं? इसी प्रकार पृथ्वीकायिक-जीवों के उद्देशक के समान प्रस्तुत उद्देशक वक्तव्य है, केवल इतना विशेष है-स्थिति और कायसंवेध जानना चाहिए। तेजस्कायिक-जीव में देवता उत्पन्न नहीं होते। शेष पूर्ववत्। २२५. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह ऐसा ही है, इस प्रकार भगवान् गौतम यावत् संयम और तप से अपने आप को भावित करते हुए विहरण करने लगे। पन्द्रहवां उद्देशक उनचालीसवां आलापक : वायुकायिक-जीवों में जीवों का उपपात-आदि २२६. भन्ते! वायुकायिक-जीव कहां से उत्पन्न होते हैं? इस प्रकार तेजस्कायिक-जीवों की भांति वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है-स्थिति और कायसंवेध जानना चाहिए। ७५१
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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