________________
भगवती सूत्र
श. १२ : उ. २ : सू. ३०-३८
श्रावकों, अर्हतों की पूर्व शय्यातर रहने वाली जयंती नामक श्रमणोपासिका थी - सुकुमाल हाथ पैर वाली यावत् सुरूपा, जीव-अजीव को जानने वाली यावत् यथा- परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा अपने आप को भावित करती हुई रह रही थी ।
३१. उस काल उस समय में भगवान महावीर आए यावत् परिषद पर्युपासना करने लगी । ३२. इस कथा को सुनकर राजा उदयन हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र ही कौशांबी नगरी के भीतरी और बाहरी क्षेत्र को सुगंधित जल से सींचो, झाड़-बुहारकर गोबर का लेप करो, लेप कर मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो। इस प्रकार जैसे कौणिक राजा की वक्तव्यता ( उववाई, सू. ५६-६९) वैसे ही सम्पूर्ण वर्णन यावत् परिषद पर्युपासना करने लगी।
३३. वह श्रमणोपासिका जयन्ती इस कथा को सुनकर हृष्ट-तुष्ट हो गयी। वह जहां मृगावती देवी थी, वहां आई, वहां आकर मृगावती देवी से इस प्रकार बोली- देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर तीर्थंकर आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आकाशगत धर्मचक्र से शोभित यावत् सुखपूर्वक चंद्रवतरण चैत्य में प्रवास - योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। देवानुप्रिय ! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम-गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है यावत् यह मेरे इहभव और परभव के लिए हित, शुभ, क्षय, निःश्रेयस और अनुगामिकता के लिए होगा ।
३४. श्रमणोपासिका जयन्ती के इस प्रकार कहने पर वह मृगावती देवी हृष्ट-तुष्ट चित्तवाली, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मनवाली परम सौमनस्य युक्त, और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गयी। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकारवाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर श्रमणोपासिका जयंती के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार किया ।
३५. मृगावती देवी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार - देवानुप्रियो ! शीघ्र गति क्रिया की दक्षता युक्त यावत् धार्मिक यानप्रवर को तैयर कर शीघ्र उपस्थित करो । उपस्थित कर मेरी इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो ।
३६. मृगावती देवी के इस प्रकार कहने पर उन कौटुम्बिक पुरुषों ने धार्मिक यान- प्रवर को शीघ्र उपस्थित कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया ।
३७. मृगावती देवी ने श्रमणोपासिका जयन्ती के साथ स्नान किया, बलि-कर्म किया यावत् अल्पभर बहुमूल्य वाले आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया । बहुत कुब्जा यावत् चेटिका- समूह, वर्षधर (कृत नपुंसक पुरुष), स्थविर, कंचुकी-जनों और महत्तरक - गण के वृंद से घिरी हुई अंतःपुर से निकली। निकल कर जहां बाहरी उपस्थान शाला, जहां धार्मिक यानप्रवर है, वहां आई। वहां आकर धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ हो गई।
३८. वह मृगावती देवी श्रमणोपासिका जयन्ती के साथ धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ होकर अपने परिवार से परिवृत होकर ऋषभदत्त की भांति वक्तव्यता (भ. ९ / १४५) यावत् धार्मिक यानप्रवर से नीचे उतरी ।
४४९