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________________ श. २४ : उ. १ : सू. ९३-९८ भगवती सूत्र गौतम! संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त-संज्ञी-मनुष्यों से उपपन्न होते हैं, संख्यात वर्ष की आयु वाले अपर्याप्त-संज्ञी-मनुष्यों से उपपन्न नहीं होते। ९४. भन्ते! संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-मनुष्य, जो नैरयिक के रूप में उपपन्न होने योग्य है, वह जीव कितनी पृथ्वियों में उपपन्न हो सकता है? गौतम! वह जीव सातों पृथ्वियों (नरकों) में उपपन्न हो सकता है, जैसे–रत्नप्रभा में यावत् अधःसप्तमी में। (भ. २/७५) प्रथम नरक में संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त-संज्ञी-मनुष्यों का उपपात आदि (पहला गमक : औधिक और औधिक) ९५. भन्ते! संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-मनुष्य, जो रत्नप्रभा-पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होने योग्य है, भन्ते! वह कितने काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है? गौतम! जघन्यतः दस-हजार-वर्ष की स्थिति वाले, उत्कृष्टतः एक सागरोपम की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। ९६. भन्ते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं? गौतम! वे जीव एक समय में जघन्यतः एक अथवा दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्यात जीव उपपन्न होते हैं। उनमें छह संहनन होते हैं, उनके शरीर की अवगाहना जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ)-अंगुल, उत्कृष्टतः पांच सौ धनुष की होती है। इसी प्रकार शेष संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक-जीवों की भांति वक्तव्य है। (भ. २४/६०,६१) भवादेश तक। केवल इतना विशेष है उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है, केवलि-समुद्घात को वर्ज कर शेष छह समुद्घात होते हैं। स्थिति और अनुबन्ध जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ)-मास, उत्कृष्टतः कोटि-पूर्व, शेष पूर्ववत्। काल की अपेक्षा जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ)-मास-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चार-कोटि-पूर्व-अधिक-चार-सागरोपम–इतने काल तक रहते हैं, इतने काल तक गति-आगति करते हैं। (दूसरा गमक : औधिक और जघन्य) ९७. वही (संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-मनुष्य) जघन्य काल की स्थिति वाले नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है, वही वक्तव्यता (भ. २४/१५-९६), केवल इतना विशेष है-काल की अपेक्षा जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ)-मास-अधिक-दस-हजार-वर्ष, उत्कृष्टतः चालीस-हजार-वर्ष-अधिक-चार-कोटि-पूर्व-इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है। (तीसरा गमक : औधिक और उत्कृष्ट) ९८. वही (संख्यात वर्ष की आयु वाला पर्याप्त-संज्ञी-पञ्चेन्द्रिय-मनुष्य) उत्कृष्ट काल की स्थिति वाली रत्नप्रभा-पृथ्वी में नैरयिक के रूप में उपपन्न होता है। वही वक्तव्यता, केवल इतना विशेष है-काल की अपेक्षा जघन्यतः पृथक्त्व (दो से नौ)-मास-अधिक-एक ७२४
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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