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________________ भगवती सूत्र श. १२ : उ. १ : सू. ११-१५ अकेले, सहाय्य-निरपेक्ष होकर, दर्भ-संस्तारक पर बैठ कर, पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ। विहार कर रहा है। १२. वह पुष्कली श्रमणोपासक जहां पौषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक शंख था, वहां आया, वहां आकर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया, प्रतिक्रमण कर श्रमणोपासक शंख को वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन नमस्कार कर इस प्रकार बोला-देवानुप्रिय ! हमने वह विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया है, देवानुप्रिय ! तुम चलो, हम विपुल आशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए, पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहार करेंगे। १३. वह श्रमणोपासक शंख श्रमणोपासक पुष्कली से इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! मुझे यह नहीं कल्पता (मेरे लिए यह करणीय नहीं है) कि मैं उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेता हुआ, विशिष्ट स्वाद लेता हुआ, परस्पर एक दूसरे को खिलाता हुआ, भोजन करता हुआ पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं। मुझे यह कल्पता है (मेरे लिए यह करणीय है) कि मैं पौषधशाला में ब्रह्मचर्य-पूर्वक उपवास करूं, सुवर्ण-मणि को छोड़कर, माला, सुगंधित चूर्ण और विलेपन से रहित होकर शस्त्र-मूसल आदि का वर्जन कर, अकेले, सहाय्य-निरपेक्ष होकर दर्भ-संस्तारक पर बैठकर पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करता हुआ विहरण करूं। देवानुप्रियो ! इसलिए तुम अपने छंद (अभिप्राय) के अनुसार उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रति जागरणा करते हुए विहार करो। १४. श्रमणोपासक पुष्कली ने श्रमणोपासक शंख के पास से पौषधशाला से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर श्रावस्ती नगरी के बीचोंबीच जहां वे श्रमणोपासक थे, वहां आया। वहां आकर उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! श्रमणोपासक शंख पौषधशाला में ब्रह्मचर्यपर्वक उपवास यावत विहरण कर रहा है। देवानप्रियो! यह तुम्हारा अभिप्राय है कि तुम उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वाद लेते हुए, विशिष्ट स्वाद लेते हुए, परस्पर एक-दूसरे को खिलाते हुए, भोजन करते हुए पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण करो, श्रमणोपासक शंख अभी नहीं आएगा। उन श्रमणोपासकों ने उस विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को स्वाद लेते हुए यावत् पाक्षिक पौषध की प्रतिजागरणा करते हुए विहरण किया। १५. मध्यरात्रि में धर्म-जागरिका करते हुए उस श्रमणोपासक शंख के मन में इस आकारवाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक और मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ यह मेरे लिए श्रेय है कि मैं कल उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्पमान होने पर श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार कर यावत् पर्युपासना कर, वहां से प्रतिनिवृत्त होकर पाक्षिक पौषध का पारणा करूं-ऐसी संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्ररश्मि दिनकर के उदित और तेज से देदीप्यमान होने ४४५
SR No.032417
Book TitleBhagwati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2013
Total Pages590
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size15 MB
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